Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 312
________________ रुको मत, किनारा समीप है २६५ नहीं हो सकेगा। आत्मा को ऊँची बढ़ाने के लिये आत्मा में पहुँचने का मार्ग ही ग्रहण करना होगा। ____ आज हम देखते हैं कि मनुष्य तीर्थ-यात्रा करता है, मन्दिरों में जाकर घण्टों पूजा करता है । आज भी स्थानक में आकर सामायिक, प्रतिक्रमण और पौषध करते हैं, किन्तु क्या यहीं मार्ग आत्मा को शुद्ध बनाने का है ? नहीं, जब तक हम अपनी आत्मा की ओर नहीं आएंगे, उसमें भरे हुए विषय-कष.य को नष्ट नहीं करेंगे, वासनाओं के कचरे को साफ नहीं करेंगे, संक्षेप में अपनी आत्मा की कमजोरियां और दोषों को दूर न करके औरों के अवगुण रखते रहेंगे तथा ओरों की निन्दा व आलोचना करते रहेंगे, तब तक आत्म-कल्याण होना असम्भव है। शीशे में अपना प्रतिबिम्ब देखो ! कहा जाता है कि एक शिष्य ने अपने गुरु से वर्षों तक ज्ञान तो प्राप्त किया ही, साथ ही उनकी इतनी सेवा की कि गुरुजी ने उसे प्रसन्न होकर एक ऐसा दर्पण प्रदान किया जिसके द्वारा वह प्रत्येक व्यक्ति के मन का प्रत्येक भाव उसमें झलक उठता था। शिष्य दर्पण पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने परीक्षा करने के लिए दर्पण का मुह अपने गुरुजी की ओर कर दिया। पर वह देखता क्या है कि उसके गुरु के मन में अहंकार, क्रोध, मोह, लोभ तथा वासना आदि के कीटाणु अनेक कोनों में कुलबुला रहे हैं। शिष्य यह देखकर दंग रह गया और सोचने लगा-मेरे गुरुजी के हृदय में भी यह सब विकार है क्या ? पर दर्पण स्पष्ट सब बात बता ही रहा था अतः उसका मन गुरुजी से विमुख हो गया और वह उनके पास से चल दिया । ____दर्पण उसके पास ही था। अत: अब वह जहाँ-जहाँ जाता प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष शीशे का मुंह कर देता और देखता कि किसी भी व्यक्ति का दिल साफ नहीं है । प्रत्येक के हृदय में ईर्ष्या, द्वष, अहंकार, छल, कपट और धोखा आदि भरा पड़ा है। यह सब देखकर वह हैरान और परेशान हो गया तथा घबराकर पुनः कुछ दिन पश्चात अपने गुरु के पास आकर बोला___"गुरुदेव ! यह क्या बात है कि संसार के जितने भी व्यक्तियों के मनों को मैंने इस दर्पण से देखा है सभी के दिलों में नाना प्रकार के दोष भरे पड़े हैं । किसी का भी तो हृदय साफ और पाप रहित नहीं है ? क्या संसार में सभी ऐसे हैं ? किसी का भी दिल पवित्र नहीं है ?" ____ गुरुजी शिष्य की बात सुनकर मुस्कुराए और उन्होंने अपने शिष्य का वह हाथ जिसमें दर्पण था पकड़ लिया तथा उस दर्पण का मुह स्वयं शिष्य की ओर कर दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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