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आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग
मोक्ष की सच्चे हृदय से कामना करने वाला भव्य प्राणी अपने हृदय से राग और द्वेष का सर्वथा न श करके तथा उनका सर्वथा त्याग करके इतना समभाव अपने हृदय में लाना चाहता है कि चाहे उसके गले में पुष्पों का हार हो अथवा सर्पों का हार समान मालूम हों । कंचन हो या लोहा तथा फूलों की शय्या हो या पत्थर की शिला एक जैसी महसूस हों । दृष्टि के सामने घास का तिनका हो या रति के समान सुन्दर नारी, दोनों पर समान दृष्टि पड़े । किसी से भी न प्रेम रखे और न किसी से कटु बात कहे ।
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इस प्रकार मोह-ममता तथा राग और द्वेष का त्याग करके वह चाहता है कि मैं इस प्रकार विरक्त बनकर पतित पावनी गंगा के किनारे पर बैठकर जप-तप करके अपना समय व्यतीत करू ँ । वह कहता है - हे भगवान् ! मेरी ऐसी स्थिति कब आएगी, जबकि मैं अपने जीवन के अत्यन्त दुर्लभ दिन शिव, शिव' करते हुए व्यतीत करूँगा ।
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सारांश यही है कि अग्नी आत्मा का हित चाहने वाले प्राणी को अधिक से अधिक व्याग करने की भावना रखनी चाहिये, लेकिन क्रमशः त्याग नियम उन्ना ही अंगीकार करना चाहिए जितना पूर्णतया निभाया जा सके । कोई भी व्रत धारण करते समय दृढ़ निश्चय और पूर्ण विचार कर लेना चाहिए कि यह मुझसे निभ सकेगा या नहीं । पूर्ण विचार पूर्वक काम न करने पर वह पूरा नहीं पड़ता तथा खंडित हो जाने पर अन्त में उसके लिए पश्चाताप करना पड़ता है |
सन्त महापुरुष सदा यही उपदेश देते हैं कि दुनियादारी की मोह-माया को कम करते हुए आत्म-साधना में लगो, जितना बन सके उतना त्याग - नियम करो पर उसका पूर्णतया पालन करो। उनके अनुभव कहते हैं
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जगत में झूठी देखी प्रीत ।
अपने ही सुख सों सब लागे, क्या दारा क्या मीत ॥
कहा गया है - इस जगत में मैंने अच्छी तरह देखा है कि प्रेम या प्रीत सब झूठ है । किसी का भी किसी के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है । सब अपने-अपने स्वार्थ के लिए मुहब्बत प्रदर्शित करते हैं । किन्तु जब स्वार्थ साधन होना बन्द हो जाता है तो आँखें फेर लेते हैं। एक दृष्टान्त इस विषय में दिया गया है
मां का प्रेम भी झूठा है
एक स्थान पर पंडितों की सभा थी । उसमें वे इसी बात पर बहस कर रहे थे कि संसार का प्रत्येक प्राणी स्वार्थी है। बिना स्वार्थ के कोई भी किसी से प्रेम नहीं करता । किन्तु एक पंडित ने कहा- 'यह गलत है और किसी का
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