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वमन की वाञ्छा मत करो
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उदाहरण का सारांश यही है कि लिए हुए नियम अर्थात् त्याग को हुई वस्तुएँ वमन के समान होती हैं जिनको पुन: ग्रहण करने को कदापि कामना नहीं करनी चाहिए।
भाप गृहस्थ हैं आप से बड़ा त्याग नहीं होता किन्तु किसी दिन अगर आपने यह नियम ले लिया कि आज मैं हरी सब्जी नहीं खाऊँगा तो वही त्याग छोटा होते हुए भी बड़ा और महत्वपूर्ण हो जाता है । ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि जब तक किसी वस्तु का त्याग नहीं किया जाता है उसके सामने आते ही चित्त उसे ग्रहण करने को इच्छा करने लगता है किन्तु त्याग करने के पश्चात् वह वस्तु सामने आए भी तो मन उसे पाने के लिए लालायित नहीं होता । क्योंकि आपकी भावना यही रहती है कि आज मेरे लिये यह त्याज्य है।
व्रत ले लेने पर यह कहना- "अमुक वस्तु का त्याग तो कर दिया पर क्या करू' अब निभना कठिन है।" यह बड़ी निर्बलता है । अगर ऐसी निर्बलता हृदय में आ जाय तो फिर अपने नियम पर दृढ़ रहना कठिन हो जायेगा । आप व्यापार करते हैं कभी उसमें नफा होता है और कभी घाटा । पर घाटा आने पर उसे छोड़ देते हैं क्या ? यही बात चारित्र के सम्बन्ध में हैं। पहले तो चारित्र उदय यों ही नहीं आता है । अनन्त पुण्य संचित हों तो चारित्र लेने की भावना किसी के हृदय में नागती है और वह व्रत नियम ग्रहण करता है। किन्तु उन अनन्त पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त किये गये चारित्र को पुन: त्याग कर देने की वांछा करना कितनी होन एवं निकृष्ट भावना है । अधिक त्याग करके उसे फिर यहण करने की अपेक्षा तो थोड़ा त्याग करके उसका ही दृढ़ता से पालन करना ज्यादा अच्छा है।
इस बात को एक गाथा में कहा गया है
अवले जह भारवाहए
मा मग्गो विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुताबए, समयं गोयम ! मा पमायए ।
-उत्तराध्ययन सूत्र १०-३३ अर्थात्-विषय मार्ग में चलता हुआ निर्बल भारवाहक, भार को फेंक कर पीछे से पश्चाताप करने लगता है, उसी प्रकार हे गौतम ! तू मत बन अतः इस विषय में समय मात्र भो प्रमाद मत कर।"
जिस व्यक्ति के शरीर में कम शक्ति होती है और वह भार अधिक उठा लेता है अर्थात् पांच सेर वजन उठाने की ताकत हो पर बीस सेर वजन
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