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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
इलाज होने पर शरीर को व्याधि तो दूर हो गई किन्तु वे खाने-पीने की ममता में ऐसे आसक्त हुए कि साधु धर्म को छोड़कर राज्य हो मांग बैठे। राजा पुण्डरिक ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयत्न किया । कहा
आप तो मुनि हैं, अत: राजाओं के भी राजा हैं। आप त्यागी हैं अनः महाराजा भी आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं।" और भी अनेक प्रकार से कुण्डरिक मुनि को समझाने का प्रयत्न किया। इन्द्रिय-पराजय शतक में एक गाथा दी गई है
बहइ गोसीस सिरिखण्ड छारक्कए । छगल गहगह मेरावणं विक्कए । कप्पतरु तोडि एरण्ड सो वावए ।
जुज्मि विसएहि मणुअन्तणं हारए॥ अर्थात् - मुनि के समझाने के लिए दृष्टान्त देते हुए कहा है- अगर आपको राख की जरूरत है तो राख तो बहुत मिलती है। उसके लिए इस संयम रूप बावमे चन्दन को जलाकर राख करना ठीक नहीं है। जो व्यक्ति ऐसा करते हैं वे बड़ी मुर्खता कर जाते हैं। चन्दा को जलाकर राख करने वाला मूर्ख नहीं तो और क्या कहलायेगा ? .
दूसरा दृष्टान्त दिया है-बकरे को खरीदने के लिए ऐरावत हाथी को बेचना । यह भी बुद्धिमानी की बात नहीं है सँयम ऐरावत हाथी के समान है, उसे देकर बकरा लेना किनारे पर आकर पुनः फिसल जाने के समान है ।
तीसरी बात है-कल्पवृक्ष को उखाड़कर एरण्ड का पेड़ लगाना । पूर्वजन्म के असंख्य पुण्यों के फलस्वरूप तो प्रवज्या रूपी कल्पवृक्ष चित्तरूपी आंगन में उगता है किन्तु उसे उखाड़कर अथवा हट कर विषय-कषाय रूपी एरण्ड के वृक्ष को स्थापित करना साधक के लिए हीरे को छोड़कर कंकर को ग्रहण करना है।
चौथी शिक्षा पद्य में दी गई है-थोड़े से विषय सुखों के लिए मनुष्यजन्म को ही निरर्थक कर देना बुद्धिमानी नहें है। ___ इस तरह अनेक प्रकार से कुण्डरिक मुनि को समझाया पर उनके हृदय पर कोई असर नहीं हुआ तथा उन्होंने राज्य-प्राप्ति का आग्रह किया। पुण्डिरिक ने आधा ही क्या सम्पूर्ण राज्य हो उन्हें देकर स्वयं साधु का बाना धारण कर लिया और त्याग नियम अपना कर अपनी आत्मा का कल्याण किया । किन्तु कुण्डरिक ने राज्य लेकर अपनी ही आत्मा का पतन किया और सातवें नरक की ओर प्रयाण किया।
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