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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
वस्तुतः इस जगत में ज्ञानी और अज्ञानी जीवन में बड़ा अन्तर है। अज्ञानी की उम्र जाहे जितनी अधिक हो जाय, उससे उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। मोह के वश में पड़ा हुआ वह कभी भी यह नहीं सोच पाता कि यह मानव जीवन बड़ी दुर्लभता से मिला है और अगर इस बार भी चूक गये तो फिर हाथ में आना कठिन है । महापुरुष इसीलिये बार-बार ऐसे व्यत्तियों को चेतावनी देते हैं। कवि सुन्दरदासजी ने भी अज्ञानी व्यक्ति को ताड़ना देते हुए कहा हैदेह सनेह न छांड़त है नर,
जानत है यह फिर नहिं देहा । छीजत जात घट दिन-ही-दिन,
दीसत है घट को नित व्हा ॥ काल अचानक आय गहे कर,
ठाइ गिराइ करे तन खेहा । सुन्दर जानि करो यह निहचं,
.. एक निरंजन सू कर नेहा ॥ कवि का कथन है-"अरे मूर्ख ! तू इस बाल के घर से निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है । पर यह तो प्रतिपल छीजता और घटता जाता है । नित्य ही इसका क्षय होता चला जा रहा है। तू यह मत भूल कि किसी भी दिन काल अचानक आकर तुझे हाथ पकड़कर चल देगा और तेरी इस देह को मिट्टी में मिला देगा। इसलिये तू इस देह से, अपने स्त्रीपुत्रों से तथा दौलत से मोह मत रख तथा एकमात्र परमात्मा से प्रेम कर, तभी तेरा जीवन सार्थक बन सकेगा।
ज्ञानहीन व्यक्ति महापुरुषों की इन सब पूर्व चेतावनियों को भी भूल जाता है तथा जीवन के अन्त तक भी आसक्ति और ममत्व का त्याग नहीं करता।
मेरा घर ही स्वर्ग है एक व्यक्ति जीवन भर अपने कुटुम्ब की सुख-सुविधा के लिये दौड़-धूप करता रहा और स्वय कष्ट पाकर भी उसने अपने परिवार के व्यक्तियों को कष्ट नहीं होने दिया। किन्तु जब वह बूढ़ा हो गया तो उसके सभी पुत्र पौत्रादि ने उसकी ओर से मुंह फेर लिया।
वृद्ध बेचारा अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा ज्यों-त्यों करके दिन काट रहा था। कोई भी उसकी बात नहीं पूछता था। एक दिन उसका छोटा पोता
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