Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 272
________________ समय कय : मंजिल दूर २५५ में समझाई है कहा है : सुशीघ्रमपि धावन्तं, विधानमनु धावति । शेते सहशयानेन, येन न या कृतम् ।। उपतिष्ठति तिष्ठन्तं, गच्छन्तमनुगच्छति । करोति कुर्वतः कर्मच्छायेवानुविधीयते ।। अर्थात्-जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो कर्म भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है तो उसका कर्म फल भी उसके साथ ही सो जाता है। जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी चलने लगता है । इतना ही नहीं, कोई भी क्रिया करते समय कर्म कर्ता का साथ नहीं छोड़ता सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है । ___वस्तुतः कर्मों की शक्ति बड़ी जबर्दस्त होती है और वही व्यक्ति उनसे भाग पाता है जो प्रतिपल सजग रहता हआ एक समय मात्र का भी विलम्ब किये बिना बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा और भविष्य में कर्मों का बन्धन न हो यह ध्यान में रखते हुए इस संसार में जल में कमलवत रहता है। जब मनुष्य के कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते तो वह जहां भी जाय वही स्थिति उसके सामने आती है। भाग्य पर किसी का जोर नहीं है एक व्यक्ति बड़ा गरीब था किन्तु उसकी बहन सौभाग्य से किसी बड़े घराने में ब्याह दी गई थी। बेचारा भाई किसी तरह रूखा-सूखा खाकर अपने दिन व्यतीत करता था। कभी-कभी तो उसे भर पेट खाना भी मयस्सर नहीं हो पाता था। ___एक बार भाई ने सोचा-"मेरी बहन श्रीमन्त के यहाँ है, तो चलूकुछ दिन अपनी बहन के यहाँ चल कर रहैं, कम से कम कुछ दिन तो भर पेट और और अच्छा खाने को मिलेगा।" ___ यह विचार कर भाई अपनी बहन के घर की ओर चल दिया। बहन अपने भाई को देखकर अत्यन प्रसन्न हुई और उसका हार्दिक स्नेह से स्वागत किया । पर जब भोजन का वक्त हुआ तो बहन ने सोचा-"मेरा भाई नित्य मक्के की रोटी और कढ़ी खाता है अतः उसकी पसन्द का ही खाना बनाऊँ। फलस्वरूप उसने मक्का की रोटी और कढ़ी बनाई।" जब भ ई खाने बैठा तो बड़े उत्साह से उसके अच्छे अच्छे पकवानों की आशा की कि बहिन अब परोसकर लाती ही होगी । पर जब उसकी बहन एक थाली में कढ़ी और मक्का की रोटी लेकर आई और थाली भाई के सामने रख दी । भाई ने वही खाना जो घर पर खाता था सामने देखकर अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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