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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
वाला व्यक्ति प्रेम से उसे ठंडा जल पिलाता है, रूखा-सूखा जो कुछ उसके पास होता है खाने को भी देता है तथा रात्रि विश्राम के लिये आग्रह करता है। यात्री वहां ठहर भी जाता है किन्तु वह रात क्या उसकी निश्चितता से व्यतीत होती है ? नहीं, उसे रात भर यही विचार होता रहता है कि कब प्रातःकाल हो और कब मैं अपने घर पहुंचू। __यही हाल मानव जीवन और आत्मा का है । आत्मा का सच्चा और स्थायी घर मोक्ष है उसे अन्त में पहुंचना वहीं है । यह मानव शरीर अथवा अन्य जो भी देह उसे प्राप्त होती है वह घोर जंगल में मिले हुए यात्री को मिली हुई उस प्याऊ के समान है जिसमें रात भर रहकर भी उसे अपने घर पहुंचने की आकांक्षा बनी रहती है। इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को सदा यही विचार करना चाहिये कि मुझे इस मानव देह में बहुत कम समय और एक यात्री के नाते ही रहना है । अत: इस देह और इस संसार में आसक्ति रखना केवल कर्म-बन्धन का ही कारण है।
यह संसार तो एक हाट अथवा बाजार के समान है । जिस प्रकार हाट के दिन अनेक व्यापारी अपना-अपना माल लेकर आते हैं तथा दिन भर की बिक्री के बाद शाम होते-होते अपना बचा हुआ सामान समेट कर अपने गाँव की ओर चल देते हैं, उसी प्रकार यह आत्मा इस संसार-रूपी हाट में अल्पकाल के लिये आता है तथा कर्मों की खरीदी-बिक्री करके अपने रास्ते पर चल देता है । अगर पुण्य-कर्मों को खरीदता है तो उत्तम गति की ओर अग्रसर होता है तथा पाप कर्मों का उपार्जन करता है तो अधोगति की ओर प्रयाण करता है । परिणाम यह होता है कि उसे अपने असली घर मुक्तिधाम पहुंचने में देर लगती है और नाना योनियों रूपी मार्ग में भटकते हुए अनेकानेक कष्टों और यातनाओं को भुगतना पड़ता है।
मेरे कहने का सारांश यही है कि मनुष्य को भली-भांति यह समझ लेना चाहिये कि यह संसार असार और मिथ्या है । जिस प्रकार प्याज को ज्योंज्यों छोलते जायँ उसमें से पत्तों के अलावा और कुछ भी प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार इस ससार के भोगों को जितना भी भोगा जाय उससे लाभ कुछ भी नहीं होता। फिर भी मानव चेतना नहीं है तथा सांसारिक पदार्थों और सांस रिक सम्बन्धों के मोह में पड़कर अपनी आसक्ति को बढ़ाता हुआ अपनी ही हानि करता है। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है -
करत चातुरी मोह बस, लखत न निज हत हान । शुक-मर्कट इव गहत हठ तुलसी गरम सुजान ॥ दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोइ नाहिं । लखत न कंटक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।
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