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मानव जीवन की सफलता
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कन्या अरू कोपीन-फटी पुनि पछ पुरानी । बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।। रह जग सों निश्चित, घिरैजित ही मन आवे । राखे चित को शान्त, कभी अनुचित नहीं भावे । जो रहें लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत पदा।
हैं राज तुच्छ तिहूं भुवन ऐसे पुरुषन को सदा। जो व्यक्ति सैकड़ों चिथड़ों से बनी हुई और ऊपर से फटी हुई कोपीन पहन लेता है और प्रफुल्लतापूर्वक वैसी ही गुदड़ी भी ओढ़ लेता है, बिना माँगे मिल जाय तो खा लेता है और न मिले तो परब्रह्म परमात्मा का स्मरण करता हुआ चाहे जहाँ भले ही वह स्थान मरघट ही क्यों न हो निश्चिन्तता पूर्वक सो जाता है । जगत के द्वारा चाहे स्तुति की जाय अथवा निन्दा वे मानापमान से सर्वथा परे रहकर निश्चिन्तता पूर्वक अपना जीवन यापन करते हुए जिधर से इच्छा हो जाय उधर ही चल देते हैं ।
ऐसे महापुरुष अपने हृदय को विषय बिकारों से पूर्णतया परे रखते हुए सदा समभाव में विचरण करते हैं तथा अपनी जिह्वा से किसी शत्रु को भी कटु-वचन नहीं कहते । सोते अथवा जागते हुए प्रत्येक पल परमात्मा के चिंतन में लीन रहते हैं । परमात्मा से उनकी इस प्रकार लौ लग जाती है कि उसके कारण उन्हें तीनों लोकों का राज्य भी तुच्छ मालूम पड़ता है । क्योंकि उन्हें किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की कामना नहीं होती।
ऐसे सच्चे योगो ही अपने मानव जीवन को सार्थक कर सकते हैं जो कि अन्दर और बाहर से सामान होते हैं । जैसी सरलता उनके बाह्य जीवन में होती है वैसी ही उनके चित्त में भी बनी रहती है अगर ऐसा न हो तो "विष-रस भरे कनकघट" के समान ही उन्हें माना जा सकता है । आजकल हम प्रत्येक जगह देखते हैं कि बनावट का ही बोलबाला अधिक रहता है । पर उससे लाभ क्या ? कुछ भी नहीं। हानि होती है। जैसे शीशियों पर लेबिल लगा हुआ है उत्तम दवाई के नाम का । किन्तु अन्दर वैसा असर न करने वाली दवा न हो तो वह क्या लाभ प्रदान करेगी सिवाय हानि के ? इसलिये प्रत्येक मनुष्य को आडम्बर का त्याग करके अपने जीवन को अन्दर और बाहर से स्वच्छ स्फटिकमणि के समान बनाना चाहिये ।
कल मैंने वृक्ष का उदाहरण देते हुए आपको बताया था कि जिस प्रकार उसकी बाल्यावस्था, फल फूलों से लदी हुई युवावस्था और पतझर के समान वृद्धावस्था आती है उसी प्रकार मानव जीवन की भी कहानी है । वृक्ष अपने
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