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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
यह आत्मा जो कि अन त शक्ति, अनन्त सुख एवं अनन्त तेज का कोश है, इस हड्डी और चमड़े के पिंजरे में कैद है किन्तु इस मायामय संसार को भी वह सुखमय मानकर मिथ्यात्व की गहरी निद्रा में सोया हुआ है। ___ यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भूल गया है, अपने लक्ष्य का उसे भान नहीं है । केवल इस देह के सम्बन्धी कुटुम्बियों और स्वजन-परिजनों के लिये अहनिशि पचता रहता है, उन्हीं के सुख के लिये अन्याय, अनीति और नाना प्रकार के पापों से धनोपार्जन करता हुआ कर्म-बन्धन करता है तथा अन्त में एक जुआरी जिस प्रकार अपने धन को खोकर खाली हाथ घर लौटता है, उसी प्रकार यह भी इस जीवन का कुछ भी लाभ न उठाता हुआ अपने अनन्त पुण्यों से प्राप्ह दुर्लभ मानव भव को खोकर चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिये चल देता है ।
इसलिये बन्धुओ ! हमें समय की कीमत समझनी चाहिये तथा जीवन के एक क्षण को भी व्यर्थ खोये बिना ज्ञान-प्राप्ति एवं आत्म-साधना में निरत रहते हुए अपने लक्ष्य को ओर बढ़ना चाहिये । समय के एक-एक क्षण को भी अगर हम सार्थक कर लेंगे तो भविष्य के अनेकानेक कष्टों से बच सकते हैं । अग्रेजी में एक कहावत भी है
"A stich in time saves nine."
समय पर थोड़ा सा प्रयत्न भी आगे की बहुत सी परेशानियों को बचाता है। ___ इसलिये भगवान महावीर के उपदेश को हृदयंगम करते हुए हमें अपने एक-एक क्षण को सार्थक करना चाहिये । यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि बीता हुआ समय पुनः लौट कर नहीं आता और अगर उसे खा दिया तो अन्त में केवल पश्चात्ताप ही हाथ आता है।
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