________________
१०२
आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
मेरे कलुषित मन को वही सब अच्छा लगता है, जिससे संसार-सागर ही में पड़ा रहूँ। ऐसी स्थिति में हे नाथ ! आप ही कहिये मैं किस बल से इन सांसारिक दुःखों को दूर करू ? जब कभी आप अपने दयालु स्वभाव से मुझ पर पिघल जाएंगे तभी मेरा इस भव सागर से विस्तार होगा अन्यथा नहीं। क्योंकि इस तुलसीदास को और किसी का तो विश्वास ही नहीं है, फिर वह किसलिये अन्यान्य साधनों में पच-पचकर मरे ?"
"हे प्रभो ! मैं किस प्रकार आपसे विनती करू ?"
बंधुओ, कपट रहित भक्ति का यह कितना सुन्दर और सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है ? ऐसी भक्ति ही भगवान् को रिझा सकती है और ऐसा कपट रहित तप ही आत्मा को निर्मल बना सकता है। जो भक्त और साधक बिना अपने दोषों को छिपाए तथा बिना दिखावे की इच्छा रखे पूर्ण दृढ़ता एवं एकाग्रतापूर्वक भक्ति और तपस्या करता है, वही सम्यज्ञान की प्राप्ति करके अपनी साधना को सफल बना सकता है। ज्ञान-चक्षु
गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो समझ में आ जाएगा कि ज्ञान के अभाव में मनुष्य कसी भी भक्ति और साधना क्यों न करे । वह अंधेरे में ढेला फेंकने के समान ही साबित होगी। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक नयनहीन व्यक्ति चलने के लिये कदम बढ़ाता है पर वह ठीक स्थान पर पड़ेगा या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। नेत्र के अभाव में उस व्यक्ति के लिए सारा जग केवल अन्धकार । है इसी प्रकार ज्ञान के अभाव में समस्त क्रियाएँ सूनी होती हैं।
एक कुण्डलिया में ज्ञान को नयनों के समान ही अमूल्य बताते हुए कहा है कि इनको खोलकर चलो ताकि साधना-पथ में कहीं ठोकर न लगे और भटकना भी न पड़े--
नयन बहुत प्रिय देह में, लोल सरस अनमोल । याते भल अनभल दिख, चालो इनको खोल ॥ चालो इनको खोल, मार्ग में खता न खावो । शास्त्र ज्ञान को लेय, जगत में सब सुख पावो ॥ चहूं कृष्ण अंधियार, व्यर्थ होत सब सुख चयन ।
पराधीन लाचार, जग में बिन इन प्रिय नयन ॥ जैसे व्यक्ति अपनी आँखों से संसार के समस्त स्थूल पदार्थों को देख सकता है, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र के द्वारा वह आत्मा, परमात्मा, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, प.प, पुष तथा लोक-परलोक के विषय में समझ सकता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org