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तपश्चरण किसलिए ?
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अवश्यंभावी है और इसी प्रकार तप करने पर उसका फल मिलना भी निश्चित है, चाहे उसके लिये इच्छा की जाय अथवा नहीं। कहा भी है
"तपोऽथवा कि न करोति देहिनाम् ?"
प्राणियों के लिये तप क्या नहीं करता है ? अर्थात् सभी प्रकार की सिद्धियाँ तप ही प्रदान करता है ।
तप की इस महत्ता के कारण ही सभी धर्मों ने इसे सम्मान दिया है तथा धर्म का अनिवार्य अंग माना है । और तो और मुसलमानों में भी तप करना आवश्यक माना गया है ।
आप जानते ही हैं कि रमजान का महीना अने पर वे पूरे महीने रोजा रखते हैं । उन दिनों वे दिन भर कुछ नहीं खाते। रात्रि को चाँद देखने के पश्चात् ही आहार ग्रहण करते हैं ।
आप कहेंगे - " वे दिन को नहीं खाते तो क्या हुआ रात्रि को तो खाते हैं ।" पर भाई ! यह तो मानो कि वे दिन के चार प्रहर तक तो कुछ नहीं खाते | यह भी क्या कम है ?
हमारे यहाँ तो भोजन में एक ग्रास भी कम खाया जाय तो उसे उणोदरी तप मानते हैं, फिर मुसलमान दिन के चार-चार प्रहर तक भी कुछ नहीं खाते तो यह उनका तप नहीं हुआ क्या ? उनके ऐसा करने से सिद्ध होता है कि वे भी तपस्या को कम महत्त्व नहीं देते, उसे अपने धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि तपश्वर्या चारित्र धर्म का एक सुदृढ़ अंग है । और इसीलिये चाहे जैन धर्म हो, चाहे वैष्णव धर्म, और चाहे मुस्लिम धर्म हो सभी में तपस्या का विधान है। इसके अभाव में कोई भी व्यक्ति अपनी साधना को सम्पूर्ण फलदायिनी नहीं बना सकता ।
हमारे यहाँ सोभप्रभ नामक एक बड़े आचार्य हुए हैं, उन्होंने तपस्या को कल्पवृक्ष की उपमा दी है । कल्पवृक्ष ऐसा वृक्ष माना जाता है, जिसके नीचे आकर व्यक्ति जो भी चाहे हो जाता है तथा जो भी वह चाहे मिल जाता है ।
आचार्य ने किस प्रकार तप को कल्पवृक्ष माना है यह उनके एक ही श्लोक से विदित होता है । श्लोक इस प्रकार है
संतोषः स्थूलमूलः प्रशम - परिकर - स्कन्ध-बन्ध प्रपञ्चः । पञ्चाक्षी शोध शाखः स्फुर दभयदलः शील संपत्प्रवालः ॥ श्रद्धाभ्यः पूरसेकाद्विपुल कुल बलंश्वर्य सौन्दर्य भोगः - स्वर्गादि प्राप्ति - पुष्प: शिवपद फलदः स्यात्तपः कल्पवृक्षः ॥
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