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तपश्चरण किसलिए ?
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एकादशी का दिन अति श्रेष्ठ माना जाता है । किन्तु इस व्रत में कुछ विकृति आ गई है । शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय और अनेक बुजुर्ग श्रद्धालु dora भक्तों से जानकारी को जाय तो वे बताते हैं-दसमी के दिन एक वक्त खाना चाहिए, एकादशी के दिन निराहार रहकर द्वादशी को पुन: एक वक्त आहार करना चाहिये । किन्तु अब इस विधान के अनुसार नहीं किया जाता । यहाँ तक कि दसमी और द्वादशी को तो एक बार नहीं खाते सो नहीं खाते पर एकादशी को भी निराहार रहने के स्थान पर फलाहार के बहाने कुछ न कुछ खाते हैं । अर्थात् एक दिन के लिये भी खाना नहीं छोड़ते ।
जबकि कहा गया है -
न भोक्तव्यं, न भोक्तव्यं सम्प्राप्ते हरिवासरे
एकादशी के दिन कुछ भी नहीं खाना चाहिये । इसीलिये सन्त तुकारामजी ने आगे कहा है :काय तुझा जीव जातो एक दिवसे
फारानाचे पिसे घंशी घड़ी ||२||
भर्त्सना के स्वरों में कहा गया है- अरे ! क्या एक दिन न खाने से तेर जीव चला जायेगा जो तू फलाहार के निमित्त से खाने की तैयारी करता है ?
af ही है कि एकादशी के दिन फलाहार करने का निषेध शास्त्रीय दृष्टिकोण से भी है और सन्त महात्मा भी यही कहते हैं । इस प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय में भी तपस्या का विधान है । एक महीने में दो बाद एकादशी आती है, बारह महीने में चौबीस बार तपश्चर्या हुई । और इसके बीच में कभी प्रदोष होता है कभी वार । उस दिन भी तपस्या रहती है । एकादशी के महत्त्व को बताते हुए वैष्णव धर्म ग्रन्थों में एक कथा है
दुर्वासा ऋषि ने शाप दिया
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- कात्यायन स्मृति
महाराजा अम्बरीष भगवान् के परम भक्त थे तथा एकादशी व्रत के अडिग व्रती थे । एक बार उनके यहाँ दुर्वासा ऋषि आये । अम्बरीष ने उन्हें द्वादशी के दिन अपने यहाँ भोजन करने का निमन्त्रण दिया । क्योकि बे द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराये बिना पारणा नहीं करते थे ।
दुर्वासा ऋषि स्नान ध्यान आदि करने के लिये उसमें बहुत देर लग गई । द्वादशी थोड़ी ही थी और ह जाती थी । इधर शास्त्रों की आज्ञा थी कि एकादशी व्रत करके द्वादशों को
बाहर गये । किन्तु उन्हें उसके पश्चात् त्रयोदशी
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