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तपश्चरण किसलिए?
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समय होते ही एक-एक करके लोग आने लगे और वह व्यक्ति उन्हें अपनेअपने स्थान पर बिठाने लगा। अचानक ही एक व्यक्ति की दृष्टि कपड़ा ओढ़े हुए किसी व्यक्ति के शरीर पर पड़ी तो उसने पूछ लिया-यह कौन सो
रहा है ?"
पिता अपनी उसी शांति के साथ बोला- मेरा पुत्र मर गया है। मैंने सोचा कि हम सब पहले अपनी मीटिंग का कार्य निपटा लें तो फिर मिलकर इसे श्मशान ले चलेंगे।" ___व्यक्ति की बात सुनते ही वहाँ उपस्थिति सभी व्यक्ति इस प्रकार चौंक पड़े जैसे वहाँ अकस्मात ही कोई भयंकर सर्प निकल आया हो । एक व्यक्ति ने महान् आश्चर्य से कहा - "आप कैसे हैं ? इकलौता पुत्र मर गया और उसको लाश पर कफन ओढ़ाकर ऐसी शांति से मीटिंग का कार्य करने जा रहे हैं ? क्या आपको अपने इस जवान पुत्र की मृत्यु का रंज नहीं है ?"
वह व्यक्ति बोला- "भाई, रंज क्या करना ? मेरा और इसका क्या नाता है ? हम सब सराय के मुसाफिर हैं। पूर्व जन्मों के कर्मवंश एक-दूसरे से मिलते हैं और अपना-अपना समय पूरा होने पर अपनी-अपनी राह जाते हैं। आत्मा का सगा कौन है ? कोई भी नहीं । अत. एक व्यक्ति पहले चल दिया तो क्या हुआ ? सभी को तो जाना है, इसमें रंज और शोक करने की क्या बात है ?"
बंधुओ, हर परिस्थिति में इस प्रकार समभाव और संतोष रखने वाला व्यक्ति ही निरासक्त भाव से तपाराधन कर सकता है तथा आत्म-साधना में सहायक प्रत्येक क्रिया को पूर्ण एकाग्र चित्त से सम्पन्न करने ने समर्थ होता है । भले ही वह व्यक्ति गृहस्थ हो चाहे साधु हो।
तो इस प्रकार तप-रूपी कल्पवृक्ष का मूल संतोष है यह स्पष्ट हो जाता है । अब हमें इसके तने को देखना है कि वह क्या है ?
श्लोक में बताया गया है- शांति-रूपी समूह इस वृक्ष का तना है । जब तक वृक्ष का तना मजबूत और दृढ़ नहीं है ता, वृक्ष की डालियाँ एवं फल-फूल आदि स्थिर नहीं रह सकते जैसे खंभों के मजबूत होने पर ही उस पर छत टिक सकती है।
संतोष-रूपी मून पर शांति-रूपी तना होता है, कवि की यह बात यथार्थ है। आचार्य चाणक्य ने भी कहा
संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतस म् ।
न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतच धावताम् ॥ संतोष रूपी अमृत से जो लोग तृप्त होते हैं, उनको जो शांति और सुख होता है, वह धन के लोभियों को, जो इधर-उधर भटकते रहते हैं, नहीं प्राप्त होता।
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