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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
जगत के जीव ताको आतम समान जान,
सुख अभिलाषी सब दुख से डरत है। जाणी हम प्राणी पालो दया हित आणी,
यही मोक्ष की निसाणी जिनवाणी उचरत है। मेघरपराय मेघकुवर धरमरूचि,
निज प्राण त्याग पर जतन करत है। जनम मरण मेट पामत अनन्त सुख,
अमीरिख कहै शिव सुन्दर वरत है। · कवि कहते हैं-जिस प्रकार हमारी आत्मा दुःख से भयभीत होती है तथा सुख की अभिलाषा करती है, उसी प्रकार संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से डरता है तथा सुख प्राप्ति की कामना करता है। यह विचार करके प्रत्येक मुमुक्षु को पर-हित और पर-दया का पालन करना चाहिए यही भावना मोक्ष की प्राप्ति कराती है ऐसा जिनवाणी का कथन है। इसी भावना के कारण राजा मेघरथ, मुनि धर्मरुचि और मेघकुमार आदि ने अपने प्राण देकर भी अन्य प्राणियों की प्राण रक्षा की। दया की भावना से ही जीव जन्म-मरण का अन्त करके अक्षय सुख की प्राप्ति करता है तथा शिव-रमणी का वरण करता है। यह सब आत्मा को पहचान लेने पर ही संभव होता है। इसीलिए इसे लोकोपचार विनय का अंग माना है तथा आत्मा का विनय कहा गया है।
इस विनय का छठा भेद है-'देशकालणया।' देश में कैसी परिस्थिति चल रही है और किस वक्त उसे क्या आवश्यकता है इस बात की भी मनुष्य को जानकारी रखनी चाहिये तथा परिस्थिति के अनुसार अपना सहयोग देने का प्रयत्न करना चाहिए । कहा भी जाता है
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी। अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग की अपेक्षा भी अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। इसीलिए अनेकों देशभक्त देश के लिये अपने प्राण भी न्यौछावर करने में नहीं हिचकिचाते । किसी ने तो यहाँ तक कहा है--
देश-भक्त के चरण स्पर्श से कारागार अपने को स्वर्ग समझ लेता है, इन्द्रासन उसे देखकर काँप उठता है । देवता नन्दन-कानन से उस पर पुष्पवृष्टि कर अपने को धन्य मानते हैं, कलकल करती हुई सुर-सरिता और ताण्डव नृत्य में लीन रुद्र भी उसका जय-जयकार करते है।"
कहने का अभिप्राय यही है कि जब तक मनुष्य इस मानव देह को धारण किये रहता है उसे अपने परिवार, समाज और देश में रहना पड़ता है। अतः सभी के प्रति यथोचित कर्तव्यों का पालन करना उसका अनिवार्य फर्ज हो
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