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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
दूसरे प्रकार की औपग्रहिकोपधि वस्तुएँ कहलाती हैं। जैसे-दाण्डादिक यानी लड़की वगैरह । इन दोनों प्रकार के उपकरणों को ग्रहण करना और रखना यतना के साथ होना चाहिये। .. मान लीजिये आपके पास पूजनी है। किसी ने वह आपसे मांगी और अगर आपने उसे फेंक कर दे दी तो इसका अर्थ अयतना एवं अविवेक माना जाएगा। केंककर वस्तु देने से वायुयान के जीवों की हिंसा तो होती ही है साथ ही अशिष्टता भी साबित होती है । शिष्टाचार के नाते विनयपूर्वक और प्रेम से मांगी जाने वाली वस्तु समीप जाकर ही देनी चाहिये । __ इसके अलावा साधु को अपनी वस्तुएँ यत्र-तत्र बिखरी हुई नहीं रखनी चाहिये । स्थानक या आसरे के द्वार सर्व साधारण के लिए सदा खुले रहते हैं । अतः वहां पर अगर साधु की वस्तु बिखरी हुई इधर-उधर पड़ी रहें तो एक तो देखने में अच्छा नहीं लगता, दूसरे कोई भी मौका पाकर चुरा सकता है, तीसरे अनजान व्यक्ति की ठोकर आदि लगने से भी दण्ड पात्र आदि टूट फूट सकते हैं।
जब मैं नवदीक्षित था, मुझे इन सब बातों का पूर्णतया विवेक नहीं था, फलस्वरूप एक दिन सती शिरोमणि रामकुवर जी के म० व श्री सुन्दर जी म० ने मुझसे कहा था--"छोटे महाराज ! अपनी वस्तुओं को यथास्थान सम्भाल कर रखिये साधु के लिये ऐसा करना अनिवार्य है।"
आज भी मुझे महासती जी के वे शब्द बराबर याद हैं । उन्होंने यह भी कहा था-"हमारे शास्त्रकारों का कथन है कि भण्डोपकरण आदि समस्त वस्तु यथा-स्थान रखने के साथ-साथ वस्त्र तथा रजोहरण आदि की दोनों वक्त प्रतिलेखना करनी चाहिए।" ___ अनेक श्रावक कहते हैं तथा कोई-कोई सन्त भी कह देते हैं-"इनमें क्या सांप विच्छ हैं जो प्रतिदिन दोनों वक्त इन्हें देखें ?"
पर साँप बिच्छूओं का होना भी कोई असम्भव बात नहीं है। हम आप लोगों के शहर में तो अवश्य ही बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों में ठहरते हैं किन्तु जब विहार में होते हैं तब अत्यन्त छोटे कच्चे और गन्दे स्थानों पर भी ठहरने के प्रसंग आते हैं और उन बहुत दिनों से बन्द पड़े मकानों में साँप बिच्छू और कीड़े-मकोड़े आदि जन्तु कपड़ों में तथा भंडोपकरण में आकर बैठ जाते हैं।
एक बार हम बोदवड़ में थे। वहां एक भाई ने उपवास किया और सायंकाल में पौषध करने के लिये आया। हमने उसे पहले ही कह दिया था
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