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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
अर्थात् -- जो परिग्रह में हृदय में धारण नहीं करते ऐसे रुचिकर नहीं लगता ।
किन्तु जिन वचनों पर विश्वास न करने से और उन्हें ग्रहण न करने से मानव का जीवन कितना अपूर्ण रहता है ? ज्ञान के अभाव में उसका आचरण सदाचरण नहीं कहला सकता तथा सदाचरण न होने से मोक्ष प्राप्ति की संभावना ही नहीं रहती । इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने आचरण को उन्नत बना लेता है वह शनैः शनैः अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के प्रयत्न में सफल हो जाता है ।
संत विनोबा भावे ने कहा है
" जिसने ज्ञान को आचरण में उतार लिया उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया समझो ।"
मनुष्य का आचरण ही यह साबित करता है कि वह कुलीन है या अकुलीन ! वीर है या कायर, सदाचारी है या अनाचारी । भौतिक ज्ञान प्राप्त कर लेने से ही सच्चा ज्ञानी नहीं माना जा सकता। इसके अलावा अनेक शास्त्र पढ़कर भी व्यक्ति मूर्ख और अज्ञानी की कोटि में ही आता है, अगर वह उसके अनुसार आचरण नहीं करता । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार रोगी डाक्टर द्वारा लिखे औषधियों का सेवन पढ़ता है तथा उसको लिये भी प्रदीप का
उसमें लिखी हुई जिन वचनों को
लीन रहते हैं और जिन भगवान की शिक्षा को अभव्य जीवों को जिन वाणी रूपी अमृत भी
हुए नुस्खे को बार-बार पढ़ता है किन्तु नहीं करता । सच्चा ज्ञ नी वही है जो अपने आचरण में उतारना है । ऐसे महापुरुष दूसरों के काम करते हैं, जिसके प्रकाश में अन्य व्यक्ति अपना मार्ग पा लेते हैं ।
गीता में कहा भी है-
यद्यदाचरति श्रेष्ठ स्त्ततदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो करते हैं अन्य पुरुष भी उससे ग्रहण करके उसके अनुसार व्यवहार करते हैं । वह जो आदर्श स्थापित कर देता है, लोग उसके अनुसार चलते हैं ।
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ज्ञान से विवेक जागता है और विवेकयुक्त विचार आचरण को शुद्ध बनाते हैं। मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही उनका आचरण बनता है । अच्छे विचार सुन्दर भविष्य का निर्माण करते हैं और बुरे विचार मनुष्य को अध: पतन की ओर ले जाते हैं । संक्षेप में मनुष्य वैसा ही बनता है जैसे उसके विचार होते हैं क्योंकि उत्तम विचार ही मनुष्य को उत्तम कर्म करने की प्रेरणा देते हैं । सुन्दर विचार ही मनुष्य के सबसे घनिष्ठ एवं हितकारी मित्र होते हैं ।
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