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मुक्ति का मूल : श्रद्धा २१६
जघन्य आराधना में भी पांच समिति तथा तीन गुप्ति का तो कम से कम ज्ञान चाहिये हो । जघन्य आराधना करने वाले का भी भगवान् की वाणी पर विश्वास और भरोसा होता है । ऐसी श्रद्धा भी जिसके दिल में होती है और ज्ञान अल्प होता है तब भी भगवान् कहते हैं कि वह आराधक है । विराधक वही कहलाता है जो भगवान् के ज्ञान को न माने, उस पर आस्था न रखे । ऐसे व्यक्ति के पास ज्ञान हो तो भी वह न होने के बराबर है ।
इसके विपरीत श्रद्धालु व्यक्ति सदा यही विचार करता है - "संसार में मुझसे कितने बड़े-बड़े सन्त और सतियाँ हैं जिन्हें ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान होता है । मेरे पास तो है ही क्या ? उसमें यह विश्वास अवश्य होता है कि मुझ में ज्ञान की कमी जरूर है किन्तु मैं भगवान् की आज्ञा में तो
इसीलिये वह आराधक कहलाता है तथा इसी भावना और आस्था के कारण वह शनैः-शनैः सम्यक् ज्ञान को प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है ।
गाथा में आगे बताया गया है -- ज्ञान के बिना चरण गुण की प्राप्ति नहीं होती । चरण यानी पैर और चरण यानि चारित्र भी होता है। चरण का अर्थ पैरों से इसलिये लिया गया है कि ज्ञान चरण अर्थात् चारित्र के द्वारा ही साधना में गति करता है । चारित्र के अभाव में साधना आगे नहीं बढ़ सकती चारित्र अगर उत्तम है तो साधक आत्म साधना में आगे बढ़ेगा, प्रगति करेगा अन्यथा भौतिक ज्ञान कितना भी क्यों न हो, वह कभी मोक्ष के लिये की गई साधना में सहायक नहीं बन सकता । ज्ञानसम्पन्न आत्मा ही साधना पथ पर चल सकती है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् से प्रश्न पूछा गया है
" नाण सम्पन्नयाए णं भन्ते ! ओवे किं जणयई ?”
अर्थात् - हे भगवन् ! ज्ञान सम्पन्न आत्मा होगी उसको क्या लाभ होगा ? उत्तर दिया गया है-
" नाण सम्पन्नयाए जोबे सव्वभावाहिगमं जणयई । नाणसंपन्नणं जीवे चाउरंते संसारकन्तारे न विणस्सई । "
जो ज्ञान सम्पन्न होगा उसके पास दुनिया में जितने भाव हैं उनका ज्ञान रहेगा । भावों का अर्थ है- जीब, अजीव, पुण्य पाप आदि समस्त तत्त्वों की जानकारी होना ।
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ज्ञान सम्पन्न आत्मा चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिये जो अरण्य के समान संसार है उसमें भटकने से बच जायेगा । नरक
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