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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
तुच्च समझता है वही परमपद को प्राप्त कर सकता है । इसके विपरीत जो पदर्थों पर से अपना ममत्व नहीं हटाता तथा जीवन के अन्त तक भी उनमें आसक्त बना रहता है वह धर्माराधन का दिन-रात ढोंग करके भी अपनी आत्मा को रंग मात्र भी ऊँची नहीं उठा पाता । परिणाम यह होता है कि उसकी समस्त ऊपरी क्रियाएँ उसकी अन्तरात्मा को नहीं छूती और उसका समस्त प्रयत्न व्यर्थ चला जाता है। ...
इसलिये साधक को चाहिये कि वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काम और लोकोपचार विनय को समझे तथा उसको अपने जीवन में उतारे। तभी वह अपने मानव पर्याय को सार्थक कर सकता है तथा जीवन का सच्चा लाभ उठा सकता है।
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