________________
आत्म-साधना का मार्ग
२०७
भाषा सम्बन्धी दोषों से बचकर प्राणी मात्र के लिए हितकारी परिमित भाषण करना भाषा समिति है। भाषा समिति संयमी पुरुषों के लिए अत्यन्त प्रिय होती है। ___साधु के लिए मौन धारण करना अत्यन्त उत्तम है किन्तु सदा मौन रखने से जीवन में कार्य नहीं चलता अत: उसे वाणी का प्रयोग करना जरूरी हो जाता है । अतः भाषा के प्रयोग के लिए कुछ नियम भी बनाए गए हैं । यथा साधु क्रोध, मान, माया लोभादि कषाय तथा हास्य और भय से प्रेरित न होकर बोले।
आवश्यक होने पर ही कम से कम बोले निरर्थक बकवाद न करे और विकथाओं से दूर रहे।
अप्रिय एव कठोर भाषा का प्रयोग न करे तथा भविष्य में होने वाली घटनाओं के विषय में निश्चयात्मक रूप से कुछ न कहे।
जो ब तें सत्य रूप से देखी, सुनी, और अनुभव न की हो उनके विषय में निश्चित रूप से कुछ न कहे तया पर-पीड़ा जनक सत्य भी न बोले । असत्य भाषण तो पूर्ण रूप से वजित है ही। - इस प्रकार भाषा के विषय में साधु को बड़ी सावधानी रखने की और भाषा के जो सोलह दोष माने जाते हैं उन्हें बचाकर बोलने की आवश्यकता रहती है अन्यथा दूसरा महाव्रत जो कि सत्य है वह भंग होता है।
वैसे भी प्रत्येक मानव को अपनी बोली में विवेक और मधुरता रखना ही चाहिए । अन्यथा जितने भी व कयुद्ध और मार-पीट के प्रसंग आते हैं वे भाषा के अनुचित प्रयोग से ही घटते हैं । विवेक और मधुरता पूर्ण भाषा बोली जाने पर ऐसी अप्रिय घटनाओं की संभावना नहीं करती। मैं तो कहता हूँ कि आखिर मधुर वचन बोलने में व्यक्ति की हानि ही क्या होती है ? खर्च तो उपसे कुछ नहीं होता उल्टे प्रीति और सम्मान की प्राप्ति ही होती है । आपको एक दोहा याद ही होगा
कागा किप्तका धन हरे, कोमल किसको देत ।
मीठे वचन सुनाय के, जग अपना कर लेत ।। कौआ और कोयल दोनों ही बोलते हैं । कौआ किसी से धन लेता नहीं और कोयल किसी को कुछ देती नहीं। वह केवल अपनी मधुर वाणी से लोगों को वश में करती है तथा कौआ कर्कश आवाज के कारण व्यक्तियों को मनको नफरत से भर देता है।
कहने का अभिप्राय यही है कि ताकत बोलने में नहीं है वरन् बोलने की मिठास में है । इसलिए चाहे श्रावक हो या श्राविका साधु हो या साध्वी,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org