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आत्म-साधना का मार्ग २११ राजा श्रेणिक सन्तों की बात से बहुत ही चमत्कृत हुए और सोचने लगे कितना उच्च जीवन है इन सन्तों का ? अपना छोटे से छोटा दोष भी ये दोष मानते हैं तथा अपने वचनों पर कितना संयम रखते हैं ? वास्तव में ही ये सच्चे साधु हैं। आनी भाषा पर पूर्ण संयम रखना कितनी बड़ी बात है ? संस्कृत के एक श्लोक में कहा भी है :
स्वस्तुतेः परनिवाया; कर्ता लोके पदे पदे ।
परस्तुतेः स्वनिदायाः, कर्ता कोपि न विद्यते ॥ अर्थात् अपनी स्तुति या प्रशंसा करने वाले तो आपको कदम-कदम पर मिल जायेंगे किन्तु औरों की स्तुति तथा अपनी निन्दा करने वाले महापुरुष इने-गिने ही मिलेगे। ___ और महापुरुष तभी महापुरुष कहलाते हैं जबकि वे अपनी भाषा पर पूर्णतथा संयम रखते हैं । भाषा की संयमितता के कारण ही अन्य पुरुषों पर उनका प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार राजा श्रेणिक पर सन्तों की सत्यवादिता और अपने दोषों की स्पष्ट स्वीकारोक्ति का पड़ा था।
(३) एषणा समिति-तीसरी समिति एषणा समिति कहलाती है । इसका अर्थ है मुनि आहार सम्बन्धी समस्त दोषों का बचाव करते हुए गृहस्थ के यहाँ से शिक्षा ले। इस पर श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में एक श्लोक दिया है :
द्विचत्वारिश्ता भिक्षा दोषनित्यमदूषितम् ।
मुनिर्यदन्नमादत्ते, सैषणा समितिर्मता ।। अर्थात्-प्रतिदिन भिक्षा के बयालीस दोषों को टालकर जो मुनि निर्दोष भिक्षा लेते हैं यानी आहार और पानी ग्रहण करते हैं, उसे 'एषणा-समिति' कहते हैं। ___ आहार के विषय में इतना ध्यान रखने का निर्देश इसीलिये दिया गया है कि आहार के साथ साधक के आचार और विचार का घनिष्ट सम्बन्ध है । साधक अथवा साधु की संयम मात्रा तभी निर्विघ्नत पूर्वक चल सकती है जबकि उसका आहार सयम के अनुरूप शुद्ध एवं निर्दोष हो । किसी ने कहा भी है
"जिस प्रकार दीपक अन्धकार की कालिमा का भक्षण करके कज्जल की कालिमा ही पैदा करता है, उसी प्रकार मनुष्य भी जैसा खाता है वैसे ही अपने ज्ञान को प्रकट करता है।" ___ अस्वादवृत्ति एवं परिमित अ हार का बड़ा भारी महत्त्व है। जो व्यक्ति इस विषय में लोलुर तथा स्वादिष्ट भोजन का अभिलाषी बना रहता है, वह यथोचित रूप से संयम का निर्वाह नहीं कर पाता क्योंकि अशुद्ध और गरिष्ठ आहार को ग्रहण करने से बुद्धि मलिन हो जाती है । इसीलिये मुनियों को पूर्ण तथा शुद्ध एवं संयमित आहार करने का आदेश दिया गया है।
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