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विनय का सुफल
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा का विवेचन करते हुए कल तपश्चर्या के विषय में हमने विचार-विमर्श किया था और आज विनय के विषय में कहना है।
विनय के सात भेद बताये गये हैं। किस-किसका विनय करना चाहिये इस बारे में कहा है - ज्ञान के विनय, दर्शन का विनय. चारित्र का विनय, मन का विनय, वचन का विनय, काया का विनय एवं लोकोपचार विनय करना चाहिये । ज्ञान, दर्शन तथा चरित्र आदि विनयों को साथ लोकोपचार विनय भी अन्त में बताया है । यह क्या है इस विषय में ठाणांग सूत्र में कहा है--
"लोगोवयार विणए सत्तविहे पण्णत्ते तंजहा अब्भासवत्तियं, परच्छंदाणुवत्तियं कज्जहे, कज्जपडिकइया, अत्तगवेसणया, देस-कालणया, सव्वस्यसुयपडिलोमया।"
इसमें लोकोपचार विनय सात प्रकार का बताया गया है जिनमें से पहला
अब्भासवत्तियं-अभ्यास का अर्थ है प्रयत्न करना। किन्तु यहाँ यह अर्थ नहीं है, यहाँ अभ्यास से अर्थ लिया गया है--गुरु के नजदीक रहने का अभ्यास रखना। गुरु के समीप रहने से शिष्य को अनेक प्रकार का लाभ हासिल होता है । उनसे अध्ययन करने से शास्त्र-ज्ञान तो प्राप्त होता ही है, साथ ही उनके जीवन से भी मूक शिक्षा मिलती रहती है जो शिष्य के चारित्र को शुद्ध और सुन्दर बनाती है । चारित्र का ज्ञान केवल पुस्तकों और धर्म-ग्रन्थों में पढ़कर प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे व्यवहार में लाकर ही समझा जा सकता है । चारित्र के बल पर ही मनुष्य अपने जीवन को दूषित करने वाले सांसारिक प्रलोभनों से बच सकता है ।
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