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तपश्चरण किसलिए?
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मेघ कुमार मुनि ने अपने पिछले हाथी के भव में तीन दिन तक पैर ऊँचा रखकर एक खरगोश के प्राण बचाये । यह अभयदान का उत्कृष्ट उदाहरण है। हमारे आगमों में बताया गया है कि पश भी त्याग, व्रत तथा प्रत्याख्यान करके आठवें स्वर्ग तक जा सकता है फिर मनुष्यों में तो ऐसी अभयदान की उत्तम भावना हो तो वह क्या नहीं प्राप्त कर सकता ?
शरणागत की रक्षा करना इतना उत्तम धर्म है कि उसके समक्ष अन्य समस्त धन क्रियाएँ भी फीकी हैं । जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता, उसके सभी सुकृत नष्ट हो जाते हैं । कहा भी है -
शरणागत कह जे तहि, हित अनहित निज जानि। . ते नर पामर पापमय, तिन्हहिं विलोकत हानि ॥
- संत तुलसीदासजी कहते हैं- जो व्यक्ति अपनी ही लाभ-हानि का विचार करता हुआ शरण में आए हुए को शरण देने से इन्कार कर देता है उस अधम और पानी व्यक्ति का दर्शन भी महा अशुभ होता है। ____और इसके विपरीत प्राणियों की रक्षा करने वाले महान् पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित रक्षा करने जैसे पुण्य-कर्म के द्वारा होता है। अभयदान देना व्रत, उपवास, जप, तप आदि समस्त क्रियाओं से उत्तम है।
श्लोक में कहा है--शील सम्पत्प्रवालः । जो तपस्वी होगा वह शील-धर्म का पालन अवश्य करेगा। शील की महिमा अपरम्पार है और उसका पालन करने वाले विरले ही होते हैं। महात्मा कबीर ने कहा भी है
ज्ञानी ध्यानी संयमी, दाता सूर अनेक ।
जपिमा तपिमा बहुत हैं, सीलवंत कोई एक। कहते हैं-ज्ञानी, ध्यानी, संयमी, दानी, शूरवीर और जप-तप करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं किन्तु शीलवान पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।
कहने का अभिप्राय यही है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यन्त कठिन है और सच्चा तपस्वी ही इसका पूर्णतया पालन कर सकता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि तपस्या का मूलाधार ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य का अथवा शील-धर्म का पालन न करने पर कठिन से कठिन या घोर तपस्या भी निर्भाव और निष्फल साबित होतो है । शील-धर्म के संयोग से ही तपस्या महान बनती है। श्री सूत्रकृतांग में कहते भी हैं
"तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं।"
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