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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
अर्थात्-ब्रह्मचर्य व्रत सब तपों में उत्तम है।
स्पष्ट है कि जीवन में शील-धर्म का बड़ा भारी महत्त्व है। इसी के बल पर धर्म, सत्य, सदाचार, बल व लक्ष्मी आदि टिके रह सकते हैं । शील ही इन सब सद्गुणों का आश्रय-स्थल है। ___महर्षि वेदव्यास ने भी शील की महिमा का बखान करते हुए महाभारत में लिखा है
शीलं प्रधानं पुरुषे, तद्यस्येह प्रणश्यति ।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बंधुभिः । व्यासजी ने तो यहां तक कह दिया है कि शील मानव जीवन का अमूल्य रत्न है । उसे जिस मनुष्य ने खो दिया उसका जीना ही व्यर्थ है चाहे वह कितना की धनी अथवा भरे-पूरे घर का क्यों न हो। ___अब प्रश्न होता है कि तप-रूपी कल्पवृक्ष का सिंचन किस प्रकार के जल से होता है ? उत्तर है-श्रद्वा-रूपी जल से वह सींचा जाता है। श्रद्धा के अभाव में तप तो क्या कोई भी शुभ क्रिया फलदायिनी नहीं बनती क्योंकि श्रद्धा वह शक्ति है जो कर्म करने में उत्साह, प्रेरणा एवं आत्मिक बल प्रदान करती है। श्रद्धा के अभाव में मनुष्य कभी भी इस संसार-सागर से पार नहीं हो सकता । न कभी ऐसा हुआ है और न होता सम्भव ही है। ऐसा क्यों ? इसलिए कि
__ "श्रद्धावान् लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः।" यह गीता की बात है कि-श्रद्धालु पुरुष ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त होने पर ही इन्द्रियों की संयम-साधना हो सकती है।
आशय यही है कि श्रद्धा के द्वारा व्यक्ति अपनी उत्तम से उत्तम अभिलाषा को भी पूर्ण कर लेता है । वैष्णव ग्रन्थों में एक लघुकथा हैपापों का भागीदार कोई नहीं __ रत्नाकार नामक एक व्याध था । यद्यपि वह ब्राह्मण था फिर भी व्याध का क र्य करता था। रत्नाकार जंगल में पशु-पक्षियों का शिकार तो करता था वन मार्ग से होकर जाने वाले व्यक्तियों को भी लूट लेता था।
एक दिन संयोगवश उधर से नारद जी निकले। व्याध ने उन्हें भी घेर लिया। छनने के लिये तो उनके पास था ही क्या ? पर नारद जी ने व्य ध से कहा-भाई ! तुम अपने जिन स्वजनों के लिये घोर पाप-पूर्ण कार्य करते हो वे सब तुम्हारे द्वारा उपार्जित इस धन के ही भोक्ता हैं, किन्तु तुम जो महान् पापों का उपार्जन कर रहे हो इनमें कोई भी हिस्सा नहीं बटायेगा ।
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