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तपश्चरण किसलिए ?
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सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। मनुष्य को विषयों का सुख और आत्मा की शांति दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ेगा । ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते । इस संसार में रहकर अगर आत्मिक शांति प्राप्त करनी है तो विषयों के सुखों का त्याग करना पड़ेगा और ऐसा नहीं किया गया, अर्थात् विषयभोगों का त्य ग नहीं किया तो जोवन भर अशांति की आग में जलना पड़ेगा।
__ इसलिए प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह संतोष-रूपीमूल पर स्थित शांति-रूपी तने को सुदृढ़ बनाए ताकि उसका तप-रूपी कल्पवृक्ष किसी भी प्रकार के भय से रहित रह सके । आचार्य चाणक्य ने तो शांति को महा तप माना है । कहा है - _
शांति तुल्यं तपो नास्ति । शांत के समान दूसरा कोई तप नहीं है ।
यहाँ भी आचार्य सोमप्रभ ने शांति को तप-रूपी कल्पवृक्ष का सबसे महत्त्व पूर्ण अंग तना माना है जिसके आधार पर सम्पूर्ण वृक्ष टिक! रहता है । ___ श्लोक में आगे कहा है-'पंञ्चाक्षी शोधशाखः ।' अर्थात्-पाँच अक्ष, यानी इन्द्रियाँ वृक्ष की शाखाएँ हैं । इन इन्द्रियों को जब पूर्णतया अपने नियंत्रण में रखा जाएगा तभी इन पर मधुर फल और फल लग सकेंगे। फल और फूल से तात्पर्य है शुभ कर्मों का बंध होना। ___आप जानते ही हैं कि जो प्राणी अपनी इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाते, उन्हें नाना प्रकार के पाप कर्मों का भागी बनना पड़ता है तथा संसार में अनादर और अपयश का भागी बनना पड़ता है। इसके विपरीत जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं, संसार उनके उन्मुख मस्तक झुकाता है । तप का प्रभाव
एक राजा बड़ा प्रमादी था और सदा विषय भोगों में अनुरक्त रहता था। वह अपने राज्य-कायं में बड़ी लापरवाही रखता था अतः वह सारा कार्य उसके मन्त्री को ही करना पड़ता था। ___ मन्त्री प्रथम तो बेचारा दिन-रात राज्य के कार्य में व्यस्त रहता, और कभी राजा के पास किसी आवश्यक कार्य से जाता तो राजा घंटों उसे द्वार पर बिठाये रखता । जैसे-तैसे मिलता तो भी सीधे मुह बात न करता और नाना प्रकार से उसकी भर्त्सना करने लगता था ।
यह सब देखकर मन्त्री को इन सांसारिक कार्यों से बड़ी नफरत हो गई। यद्यपि वह राज्य का कर्ता-धर्ता था और उसके पास भी अतुल ऐश्वर्य इकट्ठा हो गया था, किन्तु उसमें उसे तनिक भी सुख नजर नहीं आता था। __आखिर उसने सब कुछ छोड़ देने का निश्चय किया और एक दिन अपने
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