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धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
श्री उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा के अनुसार कल चारित्र के विषय में बताया गया था और आज उसी की गाथा के दूसरे चरण में तप का उल्लेख होने के कारण तप के विषय में बताया जायेगा ।
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तपश्चरण किसलिए ?
तपश्चर्या के विषय में क्रिया करने की जो रुचि है वह भी क्रिया रुचि कहलाती है । तप करना अन्य क्रियाओं की तरह सरल नहीं है, उसके लिए शारीरिक कष्ट तो सहन करना ही पड़ता साथ ही समभाव रखना और इन्द्रिय सुखों का त्याग भी करना पड़ता है । किन्तु उसका लाभ अन्य समस्त क्रियाओं की अपेक्षा असंख्य गुना अधिक होता है । ढंढण ऋषि ने तपस्या के बल पर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया था तथा आगमों में अन्य अनेक भव्य आत्माओं के विषय में वर्णन आता है, जिन्होंने तप के द्वारा अपने इच्छित लक्ष्य 'मोक्ष' को प्राप्त किया है । तप आत्मा में रहे हुए पापों को तथा दुर्बलताओं को दूर करके उसे तपाये हुए सोने के समान निर्मल, निष्कलुष एवं उज्ज्वल बनाता है |
बने जितना करो !
हमारे जैनागमों में तप का बड़ा विस्तृत विवेचन दिया गया है। उसमें तप के मुख्य प्रकार बारह बताये हैं और उनका विवेचन क्रमशः किया जायेगा । अभी तो हमें यह विचार करना है कि अधिक या कम जितना भी हो सके तप अवश्य करना चाहिये । क्योंकि -
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सकामनिर्जरासारं तप एवं महत् फलम् ।"
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- योगशास्त्र
इच्छापूर्वक कष्ट, परीषह एवं उपसर्ग आदि सहन करने से सकाम - निर्जरा की उत्पत्ति होती है, जो कि आदर्श तपस्या ही है और इसका महान् फल यही है कि इससे कर्मक्षय हो जाया करते हैं ।
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