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दीप से दीप जलाओ १३१ मतिमान हुए धतिमान हुए,
___ गुणवान हुए बहु खा गुरु लातें। इतिहास भूगोल खगोल पढ़े नित,
न्याय रसायन में कटी रातें ॥ रस पिंगल भूषण भावभरी,
गुण सीख गुणी कविता करी घातें। यदि मित्र. चरित्र या चारू हुआ,
धिक्कार है सब चतुराई की बातें ॥ पद्य का अर्थ आप समझ ही गये होंगे कि कोरे शब्द और भाषाओं के पांडित्य से आत्मा का तनिक भी कल्याण नहीं होता । इतिहास, भूगोल. खगोल, न्यायशास्त्र तथा रस अलंकारों को रिपूर्ण भाषा बोलने और लिखने से भी कोई लाभ नहीं है अगर ज्ञान का फल जो कि चारित्र या सदाचार है, उसकी प्रप्ति न हुई तो । ज्ञान की सार्थकता चरित्र के लाभ में निहित है। अब तक संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा करके मुक्ति लाभ किया है वह अपने सुदृढ़ चारित्र की बदौलत ही किया है । एक संस्कृत कहावत है
सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नाः अर्थात्-हाथी के पैर में सभी पैरों का समावेश होता है, इसी प्रकार सदाचार में सभी पवित्रताओं का तथा समस्त गुणों का समावेश होता है।
किन्तु आज के ज्ञानदाता ज्ञानार्थी को शिक्षित और विद्वान बना देते हैं, उन्हें अध्यापक, वकील, मजिस्ट्रट या इसी प्रकार के अन्य पदवीधारी भी बना सकते हैं किन्तु उन्हें सदाच री नहीं बना सकते। वे किताबी ज्ञान देते हैं किन्तु आचरण की शुद्धता प्रदान नहीं कर सकते । इसका कारण यही है कि वे स्वयं ही दृढ़ आचारी नहीं होते, आचरण की महत्ता एवं उसकी गम्भीरता पर विश्वास नहीं रखते । और इससे स्पष्ट है कि जिस बात को वे स्वयं ही दृढ़तापूर्वक नहीं अपना सकते औरों में कैसे डाल सकते हैं ? ___ सारांश कहने का यही है कि आज अधिकतर ज्ञान के नाम पर जो दिया जाना है वह ज्ञान नहीं कहला सकता केवल शिक्षा कहलाती है जो सांसारिक लब्धियों को प्राप्त कराने में सहायक बनती है। देखा जाय तो शिक्षक का अपना चारित्र ही ऐसा होना चाहिये जो मूक शिक्षक का कार्य करे, जिसे देखकर शिक्षार्थी को श्रद्धा जागृत हो जाय । अन्यथा जो शिक्षा व्यक्ति को निर्बलों को सताने के लिये प्रेरित करे, जो इसे धरती और धन का गुलाम बनाए तथा भोग-विलास में डुबाये, वह शिक्षा भी नहीं कहला सकती, उसे ज्ञान कहना तो महामूर्खता है।
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