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आनन्द प्रबचन : तृतीय भाग
___ मेरे कहने का अभिप्राय यही है इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण बड़ा प्रबल होता है और बड़े-बड़े विद्वान भी इनके वश में होकर अपना अहित कर बैठते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है :
"बलवान् इन्द्रिय-ग्रामो सिद्धांसमपि कर्षति" भावार्थ है-इन्द्रिय-समूह बड़ा बलवान है यही कारण है कि विद्वान भी इनके विषयों के भुलावे में आकर इनकी ओर आकर्षित हो जाया करते हैं। अतएव विषयों से प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिये ।
महापुरुष, जोकि पापों से भयभीत होते हुए अपनी आत्मा को उनसे बचाना चाहते हैं, वे अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हैं और तभी उनकी बुद्धि निर्मल होती हुई आत्मोत्थान में संलग्न होती है। भगवद्गीता में भी यही बताया गया है :
यदा संहरते चायं कूर्मोङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ कछुआ जैसे सब ओर से अंग समेट लेता है वैसे ही जब पुरुष इन्द्रियों को उनके विषय से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई कही जाती है।
यद्यपि इन्द्रियां शरीर में अपना-अपना कार्य करने के लिये हैं और इनसे काम लेना भी चाहिये । किन्तु सोचना यह है कि इनसे कैसा कार्य लिया जाय ? हमारे आगम पुकार-पुकार कर कहते हैं कि मनुष्य अगर चाहे तो इन्हीं इन्द्रियों की सहायता से मन को सुमार्ग पर चला कर सुगति प्राप्त कर सकता है और अगर वह स्वयं ही इनके इगितानुसार चल पड़े तो कुगति की ओर प्रमाण करता है।
"इन्द्रिय पराजय शतक नामक ग्रन्थ में एक पद्य दिया गया है । जिसमें कहा है :
अच्छ अश्व अति चपल नित,
धकत कुगति की ओर । थामंत भव ज्ञाता सुधी,
खेचिसु जिन-वच डोर ॥ अच्छ यानी इन्द्रियाँ । संस्कृत में अच्छ को अक्ष कहते हैं, दोनों शब्दों का अर्थ इन्द्रियाँ ही है । पद्य में इन्द्रियों को चंचल घोड़ों की उपमा दी गई है। कहा है - ये इन्द्रियाँ रूपी चपल घोड़े आत्मा को कुगति की ओर धकेलते हैं। अर्थात् आत्मा को नरक तथा तिर्यंच पर्याय में ले जाने का प्रयत्न करते हैं ।
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