________________
१५६ आन द प्रवचन : तृतीय भाग
उनके जीव ने निन्यानवे लाख भव से पूर्व जो पाप कर्म किया था वह उस जन्म में उदय में आया और सोमिल ब्राह्मण के द्वारा उनके मस्तक पर जलते हुए अंगारे रखे गये । इस प्रकार व्यक्ति अपने दादा परदादा की पूंजी का मालिक बनता है और आत्मा भी किये हुये पिछले समस्त जन्मों के कर्म का भोक्ता भी अनिवार्य रूप बन जाता है ।
इसलिये आवश्यक है कि व्रतों को ग्रहण करके पूर्व कर्मों की निर्जरा की जाय तथा नवीन कर्मों के बंधन से बचा जाय । जब तक व्रत अंगीकार नहीं किये जाते, तब तक कर्मों का बन्धन होना भी रोका नहीं जा सकता ।
एक कवि ने कहा है
:--
बुद्धि का सार तत्व अर्थ का सार दो पात्र
देह का सार व्रत लो जबान प्रभु
नाम
लेने
फकत उपदेश देने को । तिरो तिरो यह कहने को ।।
आना जो हुआ मेरा, नींद गफलत की छोड़ो अत्यन्त सरल भाषा में कवि ने बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह दी हैं । पद्य में कहा गया है बुद्धि का सार क्या है ? अर्थात् बुद्धि अगर हमें मिली है तो उसका लाभ हमें कैसे उठाना चाहिये ? उत्तर भी इसका साथ हो है कि अगर बुद्धि हमारे पास है तो उससे तत्वों का वितन किया जाय । जीव क्या है ? अजीव क्या ? पुण्य और पार में क्या फर्क है तथा बन्ध और मोक्ष का स्वरूप क्या है ? निर्जरा कंसे की जा सकती है आदि ।
विचार,
दान |
Jain Education International
धार,
को ।
जो व्यक्ति इन बातों का विचार नहीं करता कि मैं कहाँ से आया हूँ ? अब कहाँ जाने का प्रयत्न करना है ? भगवान के आदेश क्या हैं और उनका पालन कैसे हो सकता है ? कर्मों की निर्जरा कैसे की जा सकती है और कम बन्धनों से बचा जा सकता है ? तो वह व्यक्ति चाहे धन-वैभव के अम्बार खड़े कर ले या उच्च से उच्च पदवीधारी बन जाये, उसका समस्त धन और यश आदि सभी निरर्थक हैं ।
पद्य में दूसरी बात कही गई है -- ' अर्थ का सार दो पात्र दान' अर्थात् अगर प्राप्त हुए धन का लाभ लेना है तो सुपात्र को दान दो। देश के लिये, समाज के लिए, धर्म प्रचार के लिए अनाथ और विधवा बहनों के लिए तथा धनाभाव के कारण जो शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते हैं उन गरीब विद्यार्थियों के लिए अपने धन का व्यय करो तो धन का कुछ सार निकाल सकोगे अन्यथा अपने और अपने बच्चों के लिए तो पशु-पक्षी भी प्रयत्न करते ही हैं । मनुष्य के पास भले ही करोड़ों की सम्पत्ति हो, पर उसकी आत्मा के साथ ता वही
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org