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आत्म शुद्धि का मार्ग; चारित्र
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लेता है, मान-अपमान और सुख-दुख को समान समझता है। अपने परिवार और बन्धु बान्धों में रहकर भी किसी के प्रति ममता नहीं रखता । शुभाशुभ, पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक को कोई चीज नहीं समझता, किसी को ऊँचा और नीचा नहीं समझता सभी में ईश्वर का ही अंश मानता है । इसके अलावा कर्म-बंध और मुक्ति को भी मन का संकल्प मानता है तथा सदा ब्रह्म ज्ञान में लीन रहता है ऐसा ज्ञानी और जितेन्द्रिय पुरुष निश्चय ही जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है ।
किन्तु ऐसा तभी हो सकता है जबकि व्यक्ति अपने मन तथा इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में रख सके । व्रतों को ग्रहण करने के लिए ही इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना होता है । जिस व्यक्ति का मन उसके वश में रहता है. उसका चारित्र निष्कलंक होता है कभी भी कोई प्रलोभन उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता । उसे सदा यही ध्यान रहता है—
ऊँचा महल चिनाइया, सुबरन कली बुलाय । रहे मसाना जाय ॥ करते बहुत गुमान । खाते नागर पान ॥ परिमल अंग लगाय । देखत गये विलाय ॥
ते मन्दिर खाली परे, मलमल खासा पहिरते टेढ़े होकर चालते महलन नाँही पोढ़ते, ते सुपने दीसे नहीं,
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- कबीरदास
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संयमी और ज्ञानी पुरुष संसार की विचित्रता और नश्वरता के विषय में सोचता है - जिन वैभवशाली श्रीमन्तों ने सुनहरा काम कराकर ऊँचे ऊँचे महल बनवाए थे, वे आज श्मशान में चले गए हैं और उनके महल सूने पड़े हैं । कीमती मलमल और खासा कपड़ों के वस्त्र पहनने वाले, पान के बीड़े मुँह में दबाए अत्यन्त गर्वपूर्वक ऐंठकर चलने वाले, इत्र, फुलेल अदि लगाकर महलों में फूलों की शैय्या पर सुख से सोने वाले भी आज ऐसे विलीन हो गए हैं कि स्वप्न में भी कभी दिखाई नहीं देते ।
बस ! अपने चिन्तन में संसार की इसी अनित्यता के बारे में विचार करते हुए भव्य प्राणी अपने मन को जगत से उदासीन बना लेते हैं तथा सयम के के द्वारा अपने चारित्र को सुरक्षित रखते हैं, कलंकित नहीं होने देते ।
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पद्य में कवि ने आगे कहा है- 'जबान प्रभुनाम लेने को ।' अर्थात् हमें जिह्वा मिलती है तो उसका उपयोग ईश्वर के गुण-गान और प्रार्थना में करना
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