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१६२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
कवि ने कहा है कि पत्थर पर जिस प्रकार एक भी टांची का निशान नहीं पड़ता उसी प्रकार चित्त मुनि का समस्त प्रयत्न निष्फल गया। उनकी एक भी बात ब्रह्मदत्त ने नहीं मानी।
__ परिणाम यही हुआ कि मुनि तो संयम-पथ पर चलकर उच्चगति के अधिकारी बने और ब्रह्मदत्त सातवें नरक में गए । ___वस्तुतः जो व्यक्ति तनिक भी पुरुषार्थ स्वयं नहीं कर सकता उसकी संत, महात्मा या स्वयं भगवान् भी क्या सहायता कर सकते हैं ? मन्दिर से निकलो!
एक चोर चोरी करने गया किन्तु दुर्भाग्य से लोगों को उसके आगमन का पता चल गया और ६ उसके पीछे पड़ गए। आगे चोर दौड़ता रहा और पीछे-पीछे बहुत से व्यक्ति । ___ चोर दौड़ता-दौड़ता एक मन्दिर में पहंचा जिसमें अम्बादेवी विराजमान थीं। अन्दर जाकर वह भयाक्रांत व्यक्ति गिड़गिड़ाया- "माता मुझे बचाओ ! अन्यथा मैं आज मारा जाऊँगा । बहुत से व्यक्ति मेरा पीछा कर रहे हैं ।". ___ अरबादेवी बोली-"वत्स ! भयभीत मत होओ मैं तुम्हें बचा लूगी। पर एक काम करना कि तुम्हारा पीछा करने वाले व्यक्ति जब अन्दर आएँ तो जोर से एक हुंकार कर देना ।"
"माँ ! मैं कैसे इंकार करूंगा? मेरा तो डर के मारे गला बैठ गया है।" "तो तुम आँखें ही दिखा देना उन्हें, उसके बाद मैं सम्हाल लूगी।"
"मैं तो आँखें भी नहीं दिखा सकता ये भी तो भय के मारे पथरा गई हैं।" चोर दीनता से बोला।
___ "अच्छी बात है, तो तुम उठकर दरवाजा बन्द कर लो !' देवी ने तीसरा सुझाव दिया।
पर चोर बोला-"मेरी टाँगें इतनी काँप रही हैं कि मैं उठ भी नहीं सकता । दरवाजा बन्द कैसे करूं ?"
"अरे भाई ! इतना क्यों भयभीत हो रहे हो? तुम उठकर मेरी मूर्ति के पीछे छिप जाओ।" देवी ने दया करके फिर आदेश दिया।
पर चोर अत्यन्त भीरू था। हाथ जोड़कर कहने लगा-"देवी माँ ! मुझ से तो हिला भी नहीं जाता यहाँ से ।" ___अब तो अम्बामाता को भी क्रोध आ गया। बोली- "तुम महा कायर और निकम्मे व्यक्ति हो। ऐसी पुरुषार्थहीन की मैं कोई सहायता नहीं कर सकती । चले जाओ मेरे मन्दिर में से।"
कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को पुरुषार्थी तो होना ही चाहिए । पुरुषार्थ के अभाव में वह कोई भी शुभ कर्म करने में समर्थ नहीं हो
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