________________
१५८
आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
और सच्चे पुत्र इस संसार में कौन से होते हैं । वस्तुतः सेठजी ने बुद्धि और अर्थ दोनों का सार निकाल लिया था।
पद्म में तीसरी बात कही गई है--'देह का सार लो व्रत धार ।" अर्थात्इस मनुष्य पर्याय का कुछ सार निकालना है, यानी लाभ लेना है तो जीवन में व्रतों को धारण करो। चाहें व्यक्ति अणुव्रत धारण करे या महाव्रत ग्रहण करे उसे अपने जीवन को संयमित अवश्य बनाना चाहिये।
हम कभी अपने भाइयों से नियम लेने को कहते हैं तो उनका उत्तर होता है :-"महाराज ! बंदोकड़ी में मत नाँखों।" पर भाई ! जरा विचार तो करो कि अपने मकान में तुम दरवाजे और उसमें भी ताले क्यों लगाते हो? इसलिए न कि कोई धन-सम्पत्ति चुराकर न ले जाए ? तो आत्मा के अन्दर भी तो सद्गुण रूपी अमूल्य धन है । क्या उसके चुराए ज ने की कोई फिक्र नहीं है ? व्रत आत्मा के लिए ताले के समान ही हैं जिनके लगे जाने पर उस धन की चोरी का भय मिट जाता है।
कभी-कभी हमें समझाने के लिए लोगों को कहना पड़ता है-"आप अपनी कमीज में बटन क्यों लगाते हैं।"
उत्तर वे चट से दे देते हैं- "महाराज ! इनके बिना कपड़ा स्थिर नहीं रहता।"
बस ! इसी प्रकार जिस प्रकार बटनों के बिना आपकी कमीज स्थिर नहीं रहती, उसी प्रकार व्रतों के बिना आपका मन भी स्थिर नहीं रह सकता। जो ज्ञानी पुरुष अपने मन को व्रतों के द्वारा नियंत्रण में रख लेते हैं वे हे साधु बने या गृहस्थ बने रहें आत्म-मूक्ति के मार्ग पर बढ़ चलते हैं। ऐसा क्यों वहा जाता है, इस विषय में कवि सुन्दरदासजी ने कहा है :--
कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे, शुभ न अशुभ परे यातें निधड़क है। बस तीन शून्य जाके पापहु न पुण्य ताके, अधिक न न्यून वाके स्वर्ग न नरक है। सुख-दुख सम दोऊ नीचहु न ऊँच कोऊ, ऐसी विधि रहे सोऊ, मिल्यो न फरक है। एक ही न दोय जाने, बंध मोक्ष भ्रम मान
सुन्दर कहत ज्ञानी ज्ञान में ही रत है। जो व्यक्ति नीति और सत्य मार्ग पर चलता हुआ अपना निर्वाह करता है और किसी प्रकार का अभाव होने पर भी उस अभाव को महसूस न करके कोई कुकर्म नहीं करता, किसी के अधीन नहीं रहता और अशुभ कृत्य न करने के कारण निधड़क रहता है । वह न किसी को कुछ देता है और न किसी से कुछ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org