________________
१५० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग नहीं है। सच्चा साधु वही है जो संसार में रहकर भी सांसारिक पदार्थों में असक्ति न रखे, स्वजन-परिजनों के बीच में रहकर भी उसके प्रति मोह न रखे । हमारे आगम कहते हैं :
सन्ति एगेहि भिवहिं गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सम्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र ५-२० भगवान का कथन है-एक-एक गृहस्थ ऐसा है जो संतों की अपेक्षा भी साधना-मार्ग में श्रेष्ठ है। भले ही उसने साधुत्व अंगीकार नहीं किया है और सांसारिक कार्य करता है । प्रश्न होगा कि समस्त सांसारिक कार्यों को करते हुए भी वह सन्तों की अपेक्षा श्रेष्ठ क्यों माना जा सकता है ? __ इसका उत्तर यही है कि वह अपने मन और इन्दियों पर पूर्ण संयम रखता है तथा जिन-वचनों पर पूर्ण आस्था रखता हुआ निलिप्त भाव से सांसारिक कार्य करता है। देखा जाय तो कर्मों का बन्धन और कमों की निर्जरा पूर्णतया भावनाओं पर निर्भर होती है। उसके लिये गृहस्थ या साधु का वेश कारण नहीं बनता।
इसीलिये श्लोक में बताया गया है कि जो गृहस्त संयम-मार्ग पर चलते हैं, श्रेष्ठ हैं और पंचमहाव्रतधारी साधु तो सभी गृहस्थों से श्रेष्ठ हैं ही।
बन्धुभो मेरे, आज के कथन का सारांश केवल यही है कि हमें अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। ऐसा न करने से आत्मा कर्म-भार से बोझिल हो जायेगी तथा उन्नति को और जाने के बदले अवनति की ओर अग्रसर होने लगेगी। कहा भी है :
"आपदाम् प्रथितः पंथा इन्द्रियाणामसंयम. ॥" इन्द्रियों का असंयम यानी विषयों का सेवन ही आपत्तियों के आने का मार्ग कहा गया है।
यद्यपि इन्द्रियों को अपना कार्य करने से रोका नहीं जा सकता किन्तु प्रयत्न करने पर उन्हें अशुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होने से रोका जा सकता है और शुभक्रियाओं में लगाया जा सकता है । हमें केवल उन्हें कुमार्ग पर जाने से मोड़क सुमार्ग की और बढ़ाना है।
हमें कभी भी यह नहीं भूलना है कि संसार का कोई भी पदार्थ और स्वयं अपना शरीर भी स्थायी रहने वाला नहीं है। श्री भर्तृहरि ने एक श्लोक में बताया है :
आधिव्याधि शतर्जनस्य विविधरारोग्यमुन्मूल्यते । लक्ष्मीर्यत्र पतन्ति तत्र वितृतद्वारा इव व्यापदः ॥ जातं जातमवश्यमासु विवशं मृत्युः करोत्यात्मपात् । तत्कि नाम निरंकुशेन विधिना यनिमितं सुस्थितम् ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org