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दीप से दीप जलाओ
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युवा हुआ है, युवा से प्रौढ़ और वृद्धत्व की ओर चलता जाएगा। और एक दिन लोग कहेंगे :
जिन दाँतों से हँसते थे हमेशा खिल खिल । अब दर्द से हैं वही सताते हिल हिल । कहाँ हैं अब वे जवानी के मजे ?
ऐ जोक बुढ़ापे से है दाँत किल-किल ।। वस्तुत: कोन चाहता है कि वह वृद्ध हो जाये, उसकी समस्त इन्द्रियाँ शिरिल हो जायें और गर्दन हिलने लगे। दाँतों का गिर जाना और मुह का पोपला हो जाना कौन पसन्द करता है।
तो सच्चा ज्ञानी अपने शरीर को नश्वर और अपनी आत्मा से अलग मानता है। इसी प्रकार वह विषय-भोगों को भी घोर अनर्थकारी और त्याज्य मानता है। वह विचार करता है कि काम विकार इस दुर्लभ मानव-जीवन को वरदान बनाने के बदले घोर अभिशाप बना देता है। किसी ने कहा भी है :
ज्ञानी ह को ज्ञान जाय ध्यानी ह को ध्यान जाय । मानी ह को मान जाय सूग जाय जंग ते ।। जोगी की कमाई जाय, सिद्ध को सिद्धाई जाय ।
बड़े की बड़ाई जाय रूप जाय अंग ते ।। वास्तव में ही ये भोग अथवा काम विकार रूपी पिशाच ज्ञानी का ज्ञान, ध्यानी का ध्यान, सम्मानित का मान, वीर को वीरता, योगी को जन्म भर की कमाई को नष्ट कर देता है तथा व्यक्ति के बड़प्पन को मिट्टी में मिलाकर उसके सम्पूर्ण सौन्दर्य पर पानी फेर देता है ।
इसीलिये महापुरुष विषय-विकारों से बचते हैं तथा अपनी इन्द्रियों पर और मन पर पूर्ण संयम रखते हैं । वे मन के दास नहीं बनते । स्वामी बनते हैं तथा मन अनुसार स्वयं न चलकर मन को अपनी इच्छानुसार चलाते हैं । वे अन्य प्राणियों को भी चेतावनी देते हैं :
यदि कथमपि नश्येद् भोगलेशेन नत्वं, पुनरपि तदवाप्तिर्दु खो देहिनाँ स्यात् । इति हत विषयाशा धर्मकृत्ये यतध्वं,
यदि भवमृतिमुक्त मुक्ति सौख्पेऽस्ति वाञ्छा ।। अर्थात्-यदि विश्य भोगों के लेश मात्र से भी किसी प्रकार मनुष्यत्व हएट हो जाय तो जीव को महान दुःख से भी पुनः प्राप्त नहीं हो सकता। अत: यदि जन्म-मरण रहित मुक्ति रूपी सुख में तुम्हारी इच्छा है तो विषयों को आशा को त्यागकर तुम्हें धर्मक्रियाओं में संलग्न होना चाहिये ।
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