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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
है जो पशु होकर भी धर्म का आराधन करता है तथा धार्मिक विचार रखता है । वे उसे अपना गुरुभाई और साथी मानते थे तथा उसे योगीश्वर कहा करते थे । वे मन्त्र - पाठ करते और गधे के भी साथ देने से अत्यन्त प्रसन्न होते थे ।
यह क्रम बहुत दिनों तक चलता रहा । किन्तु एक दिन जब पंडित जी गायत्री मन्त्र का पाठ कर रहे थे, उन्हें अपने गुरु भाई की आवाज सुनाई नहीं दी । जब मन्त्र समाप्त होने तक भी वह नहीं बोला तो वे उसकी खोज में कुम्हार के यहाँ गए ।
कुम्हार के यहाँ जाकर पंडित जी उससे बोले – “भाई तुम्हारे यहाँ एक योगीराज रहते थे, वे आज कहाँ गए ?"
योगी ? कैसे योगीराज ? कुम्हार ने चकित होकर पूछा ।
" अरे वही जो मेरे साथ प्रतिदिन प्रातःकाल गायत्री मन्त्र का पाठ किया करते थे ।"
"महाराज ! मेरे यहां तो कोई योगी या सन्यासी आज तक नहीं रहा केवल एक गधा था जो आज मर गया ।" कुम्हार ने पंडित जी की मूर्खता को कुछ-कुछ समझते हुए उत्तर दिया ।
पंडित जी यह समाचार सुनकर बड़े दुखी हुए पर कुम्हार के बोलने के ढंग से कुपित होकर बोले
" तुम कैसे बेवकूफ हो ? एक महान योगी के निधन पर कहते हो मेरा गधा मर गया ?"
कुम्हार समझ गया कि पंडितजी को अपने ज्ञान का अजीर्ण हो गया है । वह उन्हें खन्ती मानकर पिंड छुड़ाने के लिए बोला - "भूल हुई महाराज ! मेरे यहाँ रहने वाले योगी सचमुच ही स्वर्ग चले गए ।"
पंडित जी फिर और क्या कहते ? मुँह लटकाये उदास भाव से गंगा तट पर आए, स्नान किया और एक महायोगी के निधन के उपलक्ष में शोक प्रदर्शित करने के लिए नाई के यहाँ जाकर अपना सिर मुड़ा आए । तत्पश्चात् अपने घर के लिये रवाना हुए।
मार्ग में उन्हें वहाँ के नगर सेठ मिले । पंडित जी सेठ जी के यहाँ यजमानी करते थे अतः सदा पूजा-पाठ करने जाया करते थे । सेटजी ने उन्हें सिर मुड़ाए उदास भाव से रास्ते पर चलते हुए देखा तो पूछ बैठे - "क्या हुआ पंडित जी ! परिवार में कहीं कोई स्वर्गवासी हो गया है क्या ?"
"अरे, परिवार का कोई मर जाता तो मुझे इतना दुख नहीं होता किन्तु आज तो एक महान् योगीश्वर का निधन हो गया है । आप तो नगर सेठ हैं, नगर की न क हैं । आपको क्या उनके लिए शोक नहीं मनाना चाहिए ।" पंडित जी ने तिरस्कार के स्वर में उत्तर दिया ।
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