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१० स्वाध्याय : परम तप
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा में भगवान ने फरमाया है-क्रियारुचि किसे कहना ? क्रियारुचि का स्वरूप क्या है ? इसी संदर्भ में आगे बताया है - दर्शन और ज्ञान के विषय में अभिरुचि रखना क्रियारुचि है किन्तु दर्शन और ज्ञान में रुचि रखना ही क्रियारुचि की पूर्णता नहीं है, उसके साथ चारित्र का भी संबंध है । चारित्र मूल वस्तु है और जो अपने चारित्र को उच्च तथा पवित्र रख सकता है, वही दर्शन और ज्ञान का पूर्णतया लाभ उठाता हुआ अपनी आत्मा का उद्धार कर सकता है। और इसके विपरीत जो चारित्रिक दृढ़ता नहीं रख पाता उससे विचलित हो जाता है, वह दर्शन और ज्ञान के होते हुए भी अपने उच्च ध्येय में सफल नहीं हो सकता। कहा भी है :
__ "यया खरो चंदनभारवाही, भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य ॥"
जैसे चंदन का बोझा लादने वाला गधा केवल बोझे का ही अनुभव करता है, चंदन की सुगन्ध से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही चारित्रहीन व्यक्ति मात्र ज्ञान का बोझा ढोने वाला ही कहा जाता है उसे अपने ज्ञान से तनिक भी लाभ हासिल नहीं होता।
इसी बात को दूसरे शब्दों में भी समझाया जा सकता है कि-ज्ञान की गति क्रिया है और :
"गति बिना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।" मार्ग का ज्ञाता होने पर भी व्यक्ति अगर गति न करे अर्थात् चले नहीं तो अपने अभीष्ट नगर में नहीं पहुंच सकता । इसी प्रकार अपार ज्ञान हासिल कर लेने पर भी साधक अपने साधना-पथ पर क्रिया-रूप गति न करे तो शिवपुर कैसे पहुंच सकता है?
इस प्रकार ज्ञान के साथ क्रिया आवश्यक है और क्रिया के साथ ज्ञान । क्योंकि व्यक्ति के पैरों में गति हो, वह खूब इधर-उधर चलता फिरता हो, किन्तु अपने निर्दिष्ट मार्ग का उसे ज्ञान न हो तो भी वह कोल्हू के बैल के समान या तो गति कर करके भी वहीं रहेगा अथवा इधर-उधर भटक जाएगा। इसलिए
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