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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
डाकू अंगुलिमाल भगवान के उपदेश से अपनी आत्म-साधना की ओर बढ़ चला। दोनों हाथ लड्डू
कहने का अभिप्राय यही है कि धर्मकथा अथवा धर्मोपदेश का बड़ा भारी महत्व है और यह स्वाध्याय का सबसे महत्वपूर्ण अंग और महातप है। कई व्यक्ति कह देते हैं-महाराज ! सैकड़ों हजारों व्यक्ति उपदेश सुनते हैं पर उसके अनुसार करते क्या हैं ? बस आप बोलते रहते हैं और वे दस्तूर के समान सुनते हैं तथा समय होते घर के लिए रवाना हो जाते हैं।
अब ऐसे व्यक्तियों को कैसे समझाया जाये ? हम केवल यही कह सकते हैं- “अरे भाई ! सो व्यक्तियों में से अगर दो व्यक्तियों ने भी जिन-वचनों को आत्म-सात् कर लिया तो कितनी अच्छी बात है । अट्ठानवें व्यक्तियों को जाने दो। जिनके पल्ले पड़ा वही बहुत है।
- इसके अलोवा अगर सब लोग भी नहीं समझते हैं तो भी धर्मोपदेश देने वाले को तो लाभ होगा ही। उनकी ज्ञान वृद्धि होगी और कल्याणकारी भावनाओं को दृढ़ता प्राप्त हो सकेगी। साथ ही वह समय शुभक्रिया में व्यतीत होगा। और क्या चाहिए ? धर्मोपदेश से श्रोता और वक्ता दोनों को ही लाभ होता है हानि किसी की नहीं होती। श्रोता जिस समय को केवल बातों में, अनीति युक्त व्यापारों में अथवा अन्य इसी प्रकार के कर्म बन्धनों को बढ़ाने वाले कर्मों में बर्बाद करते, वह तो नहीं करेंगे । उतने समय में उनके परिणाम कुछ तो स्थिर रहेंगे ही। इसलिए धर्मकथा प्रत्येक दृष्टि से लाभकारी है।
अन्त में केवल इतना ही कहना है कि प्रत्येक मुमुक्षु, प्राणी को प्रतिदिन थोड़ा सा समय भी अवश्यमेव सत्स्वाध्याय तथा चिन्तन मनन में बिताना चाहिए। वैसे कहा गया है
"चतुर्वारं विधातव्यः स्वाध्यायोष्यमहनिशम् ।" रात और दिन में सात्विक ग्रन्थों का स्वाध्याय चार बार करना चाहिए । लोकमान्य तिलक ने तो कहा है
"मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी वहाँ अपने आप ही स्वर्ग बन जाएगा।"
इसलिए हमें अन्य अनिवार्य क्रियाओं के समान ही स्वाध्याय को भी अनिवार्य कार्य मानना चाहिए तथा कितनी भी व्यस्तता होने के बावजूद भी कुछ समय इसके लिए निकालना चाहिए । अन्यथा इस संसार के कार्य तो कभी समाप्त होने वाले हैं नहीं; रात-दिन हाय-हाय करता हुआ प्राणी केवल अर्थोपार्जन और उसके लिए भी झूठ, फरेब, अनीति तथा धोखा देने के फल
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