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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
धारण कर और परीषहों को जीतने की आदत डाल । मन की इच्छाओं को तरंगों के समान चपल मानकर उनके वश में मत हो तथा कुछ समय ईशचिन्तन में लगा।
वस्तुतः किसी व्यक्ति के पास अपार वैभव है, लोग बड़ा आदमी मानकर उसका सम्मान करते हैं, बड़े परिवार का वह स्वामी है. तथा सदा ऐश्वर्य में खेलता है, किन्तु अगर उसे अपने जीवन को सफल बनाने का ध्यान नहीं है और आत्म-कल्याण के उद्देश्य को लेकर वह साधना नहीं करता है तो उसका समस्त वैभव व्यर्थ है । धर्म-साधना के अभाव में उसकी भोग लिप्सा उसे ले डूबने वाली है । जिन इन्द्रिय सुखों और विषय-वासनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपने अमूल जन्म को व्यर्थ खोकर भी सफल मानता है, उनके विषय में भगवान् महावीर क्या कहते हैं ?
खणमित्त सोक्खा बहु कालदुक्खा, पगामदुक्ख, अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ।
--उत्तराध्ययन सूत्र १४-१३ अर्थात्--यह काम भोग क्षणभर सुख देने वाले हैं और चिरकाल तक दुख देने वाले हैं । उनमें सुख थोड़ा है और दुख बहुत अधिक है। काम भोग जन्ममरण से छुटकारा पाने के विरोधी हैं, मोक्ष सुख के परम शत्रु हैं तथा अनर्थों की खान हैं।
इन भोगों को भोगते रहने पर भी कभी तृप्ति नहीं होती । एक शायर ने भी कहा है ।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निकले ।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले। सुप्रसिद्ध शायर 'गालिब' का यह कथन है कि हृदय में हजारों तमन्नाएँ हमेशा बनी रहती हैं और उनके पूरी होते जाने पर भी इतनी अधिक बची रहती हैं कि हर समय उन्हें पूरी करने की इच्छा बनी ही रहती है ।
कहने का अभिप्राय यही है कि विषय योग अतृप्तिकारक हैं । इनका जितना भी सेवन किया जाय उतनी ही व्याकुलता अधिक बढ़ती है । इसलिये भव्य प्राणी इनसे विमुख हो जाते हैं तथा अपने हृदय में से विषय लालसा की जड़ को ही उखाड़ फेंकते हैं । परिणाम यह होता है कि वे निगकुल होकर धर्माराधन करते हैं तथा साधना के पथ पर अग्रसर होते चले ज ते हैं । वे भलीभाँ'त समझ लेते हैं कि सच्चा सुख बाहर नहीं है, अंदर ही है । एक कवि ने बड़ी सुन्दर बात कही है :
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