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असार संसार ११७
अत्यल्प होती है । पाती, जन्म और
मोक्ष प्राप्ति सहज नहीं है उसके साधनों को आत्मा केवल मनुष्य योनि में ही कर सकती है क्योंकि अन्य योनियों में बुद्धि की मात्रा अतः जो आत्मा मानव जन्म में मोक्ष की साधना नहीं कर मरण के फंदे से बचने के लिये प्रयत्न नहीं करती, वह पतित होकर निकृष्ट योनियों में पुनः-पुनः जन्म लेती रहती है । अतः इस जन्म में क्षणिक सुख भोग कर अगले जन्म में पुण्य की कमाई कर लेने का विचार महामूर्खता से भरा हुआ कह जा सकता है ।
सफलता कैसे मिले ?
यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है । कुछ व्यक्ति जीवन की सफलता के विषय में विचार करते हैं तो अपनी सीमित दृष्टि के कारण इहलौकिक सफलता प्राप्त कर लेने को ही जीवन का सफल होना मान लेते हैं । अर्थात् धन, यश, परिवार की वृद्धि अथवा प्रचुर भोगोपभोग भोगना ही उनके जीवन का लक्ष्य या जीवन की सफलता का प्रमाण होता है । किन्तु ऐसा दृष्टिकोण सर्वथा गलत है क्योंकि इन दृश्यमान पदार्थों की प्राप्ति शीघ्र ही वियोग में बदल जाती है । या तो जोवनकाल में ही इनका वियोग हो जाता है अथवा जीवन समाप्त होते ही सब यहीं रह जाता है ।
इसलिए भव्य प्राणियों ! हमें जीवन की सफलता आत्मा के शाश्वत कल्याण की दृष्टि से माननी चाहिए अगर इस जीवन के द्वारा हम आत्मा को ऊँचाई की ओर ले जा सकें तो ही समझना चाहिए कि हमारा जीवन अंशतः सफल हुआ है ।
इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें प्रतिपल यह ध्यान रखना चाहिए कि यद्यपि आत्मा अमर है किन्तु यह जीवन अमर नहीं है । किसी भी दिन और किसी भी क्षण यह नष्ट हो सकता है । हमें अपने मन को सदा यह चेतावनी देनी चाहिए
चालहि ।
ऐसे चित्त कर कृपा, त्याग तू अपनी सिर पर नाचत खड़ा जान तू ऐसे कालहि ॥ ये इन्द्रियगन निठुर यान मत इनको कहिबो ! शांत भाव कर ग्रहन सीख कठिनाई सहिबौ ।। निजमति तरंग सम चपल तजि नाशवान जग जानिये ।
जाने करहु तासु इच्छा कछुक शिव-स्वरूप उर आनिये ।।
चित्त से कहा है-- अरे मन ! अब तो तू अपनी कुचाल छोड़ और यह समझ कि मेरे सिर पर काल खड़ा नर्तन कर रहा है । देख, ये इन्द्रियां अत्यन्त निष्ठुर हैं अतः इनका कहना मानकर पापों का बँध मत कर ! तू सम-भाव
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