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५२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
संस्कृत के एक आचार्य ने भी नम्रता का महत्त्व बताते हुये एक श्लोक में कहा है :--
विनश्यन्ति समस्तानि व्रतानि विनयं बिना।
सरोरुहाणि तिष्ठन्ति सलिलेन बिना कुतः ।। अर्थात्-जिस मनुष्य के जीवन में विनय का अभाव है, उसके सभी व्रत विनष्ट हो जाते हैं । जैसे पानी के अभाव में कमल नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार विनय के बिना कोई व्रत और नियम जीवन में टिक नहीं पाता।
अधिक क्या कहा जाय नम्रता समस्त सद्गुणों का शिरोमणि है । नम्रता से ही सब प्रकार का ज्ञान और सर्व कलाएँ सीखी जा सकती हैं क्योंकि नम्र छात्र अपने क्रोधी से क्रोधी गुरु को भी प्रसन्न कर लेता है जबकि अविनयी शिष्य शांत स्वभावी गुरु को भी क्रोधी बना देता है । स्पष्ट है कि ज्ञान हासिल करने वाले शिष्य को अत्यन्त नम्र स्वभाव का होना चाहिये।
आज के युग में हम देखते हैं कि स्कूलों और कॉलेजों के विद्यार्थी इतने उदंड और उच्छृङ्खल होते हैं कि उनके शिक्षक उन्हें भूलें करने पर और बराबर विषय न तैयार करने पर भी कोई सजा नहीं दे सकते अन्यथा उन्हें स्वयं ही सजा भोगने को बाध्य होना पड़ता है । पर ऐसी अविनीतता के कारण क्या छात्र कभी ज्ञानी बन सकते हैं ? नहीं, जिसे हम सच्चा ज्ञान और उत्तम संस्कार कहते हैं, वह सब अविनीत छात्रों से कोसों दूर चले जाते हैं। परिणाम यही होता है कि ज्ञान के अभाव में उनका जीवन दोषों और विपत्तियों से परिपूर्ण बना रहता है तथा जन्म-मरण की शृंखला बढ़ती जाती है।
तो बंधुओ! मैं बता यह रहा था कि प्रत्येक आत्म-हितैषी व्यक्ति को सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये और इसके लिये उसे ज्ञान-प्राप्ति के समस्त उपायों को भली-भाँति समझकर उन्हें कार्यरूप में परिणत करना चाहिये । जैसा कि मैंने अभी बताया है, ऊनोदरी भी ज्ञान-प्राप्ति का एक उपाय है। . भूख से कम खाने से प्रथम तो खाद्य पदार्थों पर से आसक्ति कम होती है, दूसरे, निद्रा और प्रमाद में भी कमी हो जाती है और तभी व्यक्ति स्वस्थ मन एवं स्वस्थ शरीर से ज्ञानभ्यास कर सकता है। कम खाना अर्थात् ऊनोदरी करना, जिस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से तप है, उसी प्रकार ज्ञानार्जन में सहायक भी है। हमें दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण मानकर उसे अपनाना चाहिये ।
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