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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
न देता हुआ जबर्दस्ती उसे अपने साथ ले चला। दूसरा मित्र भी अपने मित्र की बात न टालने के कारण ही साथ हो लिया।
प्रवचन प्रारम्भ हो गया था अतः दोनों चुपचाप जाकर श्रोताओं के साथ बैठ गए। पहला मित्र तल्लीनता पूर्वक उपदेश सुनने लगा किन्तु दूसरा महात्मा को किसी प्रकार नीचा दिखाने की उधेड़-बुन में लगा रहा । कुछ देर पश्चात् प्रवचन समाप्त हुआ और लोग उठकर अपने-अपने घर चल दिये । मौका मिल गया और साधू-निन्दक श्रेष्ठि ने महात्मा की सहनशीलता की परीक्षा लेने के लिए उनसे कहा__ "क्यों महाराज ! दुनियादारी के कर्तव्य निभाते नहीं बने क्या इसीलिए आपने साधुपन अपना लिया है ?"
संत ने सेठ की बात सुनी पर कोई उत्तर नहीं दिया, केवल मुस्कुराते रहे । इस पर सेठ को बड़ा बुरा लगा और उसने दूसरा तीर छोड़ा-"हम संसारी लोगों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है ? कितना पसीना बहाना पड़ता है ? तब कहीं उदरपूर्ति होती है । किन्तु साधू तो बस हराम का खाते हैं।" ___ महात्मा जी की मुद्रा पूर्ववत् ही रही । उन्होंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। सेठ इसे अपना अपमान समझकर आग-बबूला हो उठा और क्रोधित होकर बोल पड़ा-"हराम का माल खाने से तो मर जाना अच्छा।" __ पर संत के लिये तो ये कटु बातें चिकने घड़े पर पड़े हुए पानी के समान साबित हुई। न उन्हें क्रोध आया और न ही कोई कड़वा उत्तर उनके मुह से निकला। वे सोचने लगे - "इस भोले व्यक्ति ने अपनी समझ से ठीक ही कहा है। इसकी दृष्टि इस संसार के बाहर नहीं जाती तो इसका क्या दोष है ? अगर यह जान लेता कि इस संसार से परे भी कुछ है और उसके लिए भी कमाई करनी पड़ती है तो यह समझ जाता कि हम सांसारिक कमाई नहीं करते तो क्या हुआ ? आध्यात्मिक कमाई तो करते हैं और लोगों का जो खाते हैं उसे उपदेश के रूप में ब्याज सहित लौटा भी देते हैं अत: वह हराम का खाना तो नहीं हुआ और जब हराम का खाते नहीं तो फिर शर्मिन्दगी किस बात की ? वैसे मरना एक दिन वास्तव में है ही। इस बात को कहने में हर्ज ही क्या है ?" ___ इस प्रकार महात्मा जी तो अपने विचारों में खोये हुए थे और उधर सेठ संत को इतनी कटु बातों को सुनने के बाद भी मौन देखकर सोच रहा था"आश्चर्य है कि ऐसी कड़वी बातें सुनकर भी संत के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आई । वास्तव में ही साधु असीम समता के धारी होते हैं । धिक्कार है मुझे, जो मैं साधुओं के प्रति इतने हीन भाव रखता हूँ और अभी मैंने इन महात्मा को ऐसी कटु बातें कहीं हैं।" यह विचार करते-करते ही सेठ को
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