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: आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
है । यह मनुष्य ही धीवर के रूप में कांटे डालकर उसे फँसाने के लिये बैठ "जाता है।
तीसरा नम्बर है— सज्जन पुरुषों का । सज्जन अथवा संत जन भी किसी प्राणी को कष्ट, दुख या हानि तो पहुँचाता ही नहीं है, उलटे उनकी भलाई और परोपकार में रत रहते हैं, सन्मार्ग से भटके हुओं को मार्ग दर्शन कराते हैं तथा अपनी हानि सहकर भी औरों को लाभ पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं । जैसा कि कहा गया है :
विप्रियमप्याकर्ण्य ब्रूते प्रियमेव सर्वदा सुजनः । सारं पिबति पयोधर्वर्षत्यम्भोधरो मधुरम् ॥
जिस प्रकार समुद्र का खारा जल पीकर भी बादल मीठा जल ही बरसाता हैं, उसी प्रकार सज्जन औरों की कटुवाणी सुनकर भी सदा मधुर शब्द ही बोलता है ।
कहा जाता है कि एक बार हजरत अली नमाज पढ़ रहे थे । अचानक एक दुष्ट व्यक्ति यहाँ आया और उसने अपनी तलवार उन पर वार करने के लिए उठाई ।
तलवार उनकी गर्दन पर पड़ती उससे पहले ही अन्य व्यक्तियों ने उस घातक व्यक्ति को पकड़ लिया तथा उसे हजरत अली के सम्मुख उपस्थित किया ।
उसी समय एक भक्त उनके लिये शरबत का गिलास लेकर आया और उसे पी लेने की प्रार्थना करने लगा । अली ने एक बार गिलास की ओर देखा तथा दूसरी बार बँधे हुये अपराधी की ओर । अपराधी की ओर वही करुण दृष्टि से देखते हुए वे बोले - ' भाई ! शरबत का यह गिलास इस दुःखी को दे दो, दौड़-धूप करने से बेचारा बहुत थक गया होगा ।"
नमाज पढ़ने वाले रस्सी से बाँधकर
तो ऐसे संतों के पीछे भी दुष्ट व्यक्ति लगे ही रहते हैं । उनकी निंदा, अपमान और हत्या करने तक से पीछे नहीं हटते ।
अब हमें समस्त ग्रन्थों के सार तत्त्व की तीसरी बात आत्म-दमन को लेना है, जिसका उल्लेख श्री तिलोक ऋषि जी महाराज ने किया है ।
जो साधक आध्यात्मिक साधना करना चाहता है उसे सतत् अभ्यास के द्वारा अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना चाहिए तथा मन की गति का बड़ी बारीकी से अध्ययन करते हुए उसे वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए । इन्द्रियों का स्वामी मन है और अगर उसे वश में कर लिया जाय तो इन्द्रियों पर सहज ही विजय प्राप्त की जा सकती है । किन्तु मन को वश में करना ही बड़ा कठिन होता है, क्योंकि वह अत्यन्त धृष्ट होता है, और इसलिये उसका
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