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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
चलना ? कसे बोलना ? कैसे गोचरी लाना, आदि सभी के विषय में 'दशवैकालिक' में निर्देशन है।
चौथा सूत्र है -'उत्तराध्ययन सूत्र' । इसमें तप के विषय में वर्णन दिया है। आप जो कि इस सूत्र को पढ़ चुके होंगे, कहेंगे कि इसमें तप का क्या वर्णन है ? केवल एक ही तो तीसवाँ अध्याय इस विषय का है । पर आपकी यह शिकायत सही नहीं होगी। क्योंकि विनय भी तप है और इस सूत्र के नवें अध्याय में विनय का बड़ा विशद् विवेचन है । विनय की महत्ता - हमारे जैन-शास्त्रों में विनय को बड़ा महत्त्वशाली माना गया है । इसके विषय में कहा है : -
विणओ जिणसासण मूलं,
विणओ निव्वाण साहगो। विणओ विप्पमुक्कस,
कुओ धम्मो कुओ तवो ? अर्थात्-विनय जिन शासन की जड़ है और विनय ही निर्वाण का साधक है। जिस व्यक्ति में विनय नहीं है, उसमें धर्म और तप टिक ही कैसे सकते
___अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार मूल के अभाव में शाखाएँ तथा फल-फूल आदि कुछ नहीं टिकते उसी प्रकार विनय रूपी मूल के अभाव में उसके फलफूल रूपी धर्म तथा तप आदि नहीं टिक सकते ।
विनय समस्त लौकिक एवं लोकोत्तर सुखों का साधन है । किसी मनुष्य में भले ही सैकड़ों अन्य गुण मौजूद हैं, किन्तु विनय गुण नहीं है तो वे समस्त गुण शोभाहीन मालूम देते हैं। एक संस्कृत भाषा के कवि ने कहा भी है :
नभोभूषा पूषा कमलवनभूषा मधुकरो। वचोभूषा सत्यं वर विभवभूषा वितरणम् ॥ मनोभूषा मंत्री मधुसमय भूषा मनसिजः ।
सदो भूषा सूक्तिः सकलगुण भूषा च विनयः।। आकाश का भूषण सूर्य है तथा कमल-वन के आभूषण मधुकर यानी भ्रमर हैं । आकाश में भले ही असंख्य तारे रहें किन्तु उनसे आकाश सुशोभित नहीं होता तथा कमलों के वन में अगर भंवरे मधुर-मधुर गुजार न करें तो कमलवन भी सूना-सूना लगने लगता है।
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