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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
हितोपदेश में एक श्लोक दिया गया है। उसमें भी कहा गया है कि प्रत्येक प्रकार की उन्नति में छ: कारण बाधक बनते हैं । वे कारण ये हैं
आलस्यं स्त्री सेवा, सरोगता जन्मभूमि वात्सल्यम् ।
संतोषो भीरुत्वं षध्याघाता महत्त्वस्य ॥ आलस्य, स्त्री की सेवा, रोगी रहना, जन्मभूमि का स्नेह, संतोष और डरपोकन ये छ: बातें उन्नति के लिए बाधक हैं। __वस्तुतः इस संसार में आलस्य के समान अन्य कोई भी भयंकर पाप नहीं है । इसके वश में हुआ प्राणी इहलोक और परलोक दोनों ही ओर से जाता है । इसलिये इसका सर्वथा त्याग करना ही उचित है ।
तो आपने समझ लिया होगा कि अभिमानी, क्रोधी, प्रमादी, रोगी और अलसी व्यक्ति किस प्रकार अपने जीवन को निष्फल बनाते हैं तथा मनुष्य जन्म पाकर भी उसका कोई लाभ नहीं उठाते । हमें इन सब बातों से शिक्षा लेकर अपने जीवन को इन दुर्गुणों से बचाने का प्रयत्न करना चाहिये तथा मनुष्य जन्म-रूपो इस दुर्लभ अवसर के एक-एक क्षण का लाभ उठाते हुए आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहिये । अन्यथा तो यह जीवन पाकर भी हमने धर्म साधना नहीं की और पुण्य-संचय न कर पाया तो यह चाहे जितनी लम्बी उम्र पाकर भी उसे न पाया हुआ ही मानना पड़ेगा। यह दुर्लभ जिन्दगी मिलकर भी न मिली के बराबर हो ज एगी।
पूज्यपाद श्री अमी ऋषि जी महाराज ने भी बड़े सुन्दर ढंग से कई उदाहरण देते हुए कहा हैऊसर मेह कुपात्र सनेह,
जुआरी को धन भयो न भयो ज्यों। जार को सुख र छार पं लीपन,
मूढ़ से कूढ़ कियो न कियो ज्यों। मूरख मीत लबार को सीख,
अनीति को राज कियो न कियो ज्यों। साँच विचार अमोरिख धर्म,
बिना जुग कोटि जियो न जियो ज्यों ॥ ऊसर अर्थात् बंजर भूमि पर बरसा हुआ मेह, कुपात्र से किया हुआ स्नेह तथा जुआरी के पास आया हुआ धन, जैसा हुआ न हुआ बराबर है । उसी प्रकार अनुचित सम्बन्ध रखने वाले प्रेमी से प्राप्त सुख, राख के ऊपर लीपना तथा मूढ़ वरक्ति से की गई गूढ़ बातें भी न की जाने के समान ही हैं । इसके साथ ही मूर्ख व्यक्ति को मित्र मनाना, झूठे को शिक्षा देना तथा अनीतिपूर्वक
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