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धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा का वर्णन चल रहा है । कल हमने ज्ञान प्राप्ति के छठे कारण विनय के विषय में वर्णन किया था । आज सातवें कारण को लेना है । ज्ञान वृद्धि का सातवाँ कारण हैकपट रहित तप करना ।
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तप का माहात्म्य
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तपो हि परमं श्रेयः
हमारे जैनागमों में तप की बड़ी भारी महिमा बताई गई है । जैनाचार्यों ने आत्म-शुद्धि के लिये अनेक मार्गों की गवेषणा की है किन्तु उनमें से सर्वप्रधान मार्ग तपश्चरण को माना गया है । तप दो प्रकार का है - आंतरिक और बाह्य । जैनशास्त्रों में इन दोनों का जो विस्तृत एवं व्यापक वर्णन दिया गया है, उसे देखते हुए स्पष्ट कहा जा सकता है कि जब तक साधक अपने जीवन को पूर्ण तपोमय नहीं बना लेता, तब तक आत्म शुद्धि और आत्म-साक्षात्कार का उसका सर्वोच्च ध्येय सफल नहीं हो सकता ।
मनुस्मृति में भी तप का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है" तपसा किल्विषं हन्ति ।"
तप के द्वारा पापों का नाश होता है तथा असत् प्रवृत्तियों के स्थान पर सत् प्रवृत्तियाँ स्थापित होती हैं ।
जिस प्रकार धोबी मलिन वस्त्रों को साबुन अथवा सोडे से स्वच्छ कर लेता है, उसी प्रकार साधक अपने तप के बल पर आत्मा को पूर्णतया विशुद्ध और निर्मल बना लेता है । तपस्या का तेज बड़ा प्रखर होता आत्मा की सम्पूर्ण कालिमा को भस्म करके उसे दैदीप्यमान बना देता है, जिस प्रकार अग्नि स्वर्ण को तपाकर निष्कलुष एवं कांतियुक्त बना देती है |
है
और वह उसी प्रकार
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