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ज्ञान प्राप्ति का साधन : विनय
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आलसी व्यक्ति किसी भी काम को समय पर नहीं करता तथा सर्वदा अगली बार करने के लिये रख छोड़ता है । उसका मूल मन्त्र ही यह होता है -
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्यों करता है, अभी तो जीना बरसों। तो, बरसों जीना है, यह विचार कर आलसी व्यक्ति ऐश-आराम और भोगोपभोग में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यतीत करता चला जाता है । वह भूल जाता है कि मौत तो उसके जन्म लेने के समय से ही उसे ले जाने की ताक में रहती है और मौका पाते ही ले भागती है। एक पंजाबी कवि ने कहा भी है
इधर उडीके मौत पई तैनू गावे काल तराना। तूं फसया मोह माया अन्दर होके मस्त दीवाना ॥ तन है किधरे मन है किधरे, उलझे किधरे वाणी।
मानुष भव अनमोल की तू कदर न जानी ॥ पद्य में कहा गया है- "अरे नासमझ प्राणी ! इधर तो मृत्यु तेरी राह देख रही है और काल तराने गा-गाकर प्रसन्न हो रहा है । और उधर तू मूर्ख बनकर मोह-माया में मस्त हो रहा है तथा बरसों तक जीने के ख्वाब देख रहा है । तेरा तन, मन और बचन किधर उलझे हुए हैं ? लगता है कि तुझे इस अमूल्य मनुष्य-जन्म की तनिक भी कदर नहीं है ।
वस्तुतः आलस्य के समान मनुष्य को अकर्मण्य बनाने वाला अन्य कोई भी दुर्गुण नही है । यह मन और शरीर दोनों को ही निकम्मा बना देता है तथा व्यक्ति पुरुषार्थ हीन होकर रह जाता है। परिणाम यह होता है कि वह कल करूंगा, परसों करूंगा या युवावस्या का आनन्द उठा लेने के पश्चात् वृद्धावस्था में करूंगा, ऐसा सोचते-सोचते ही एक दिन यहाँ से प्रयाण कर जाता है और परलोक में साथ ले जाने के लिए कुछ भी पूजी एकत्रित नहीं कर पाता।
कार्लाइन नामक एक विद्वान् ने भी यही कहा है"In idleness alone there is perpetual despair." आलस्य में ही सान्ततिक निराशा रहती है।
इस कथन से स्पष्ट जाना जाता है कि आलसी व्यक्ति जीवन में कभी सफलता का मुह नहीं देख पाता । उसके शरीर की जड़ता का परिणाम उसकी आत्मा को भोगना पड़ता है । क्योंकि आलस्य के कारण ही वह अपनी आत्मा की उन्नति के लिए कोई शुभ क्रिया करने में समर्थ नहीं हो पाता ।
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