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आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग
धर्म एवं संयम का पालन करना पड़ता है । कहा भी है :retain दिट्ठी, चरिते पुत ! दुच्चरे । जवा लोहमया चेव, चावेयग्वा सुदुक्करं ॥
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— उत्तराध्ययन सूत्र १६-३६
अर्थात् — सर्प को एकाग्रदृष्टि की तरह एकाग्र मन रखते हुये चरित्र पालन पालन अत्यन्त दुष्कर है । दूसरे शब्दों में, लोहे के चनों को चबाने के समान संयम पालना अत्यन्त ही कठिन है ।
वस्तुतः संत-जीवन अत्यन्त दुष्कर किन्तु महामहिम भी होता है । इसलिये व्यक्ति को उनके जीवन से ज्ञान पाने के लिये उनकी संगति करनी चाहिये तथा उनके सदुपदेश एवं आचरण से अपने आत्म-कल्याण का मार्ग पाना चाहिये । सत्संगति से ही ज्ञान प्राप्ति संभव है और ज्ञान प्राप्ति से कर्म नाश करते हुए मुक्ति । अतः जिसे मुक्ति की अभिलाषा है, उसे सत्संगति का महत्व समझकर उसके द्वारा अपनी ज्ञान-वृद्धि करनी चाहिये ।
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