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ज्ञान प्राप्ति का साधन : विनय
लगी ।
गोश्त, हड्डी और चमड़ा जो था जिस्मे जार में । कुछ पका कुछ बिक गया कुछ फिंक गया बाजार में || अब रही आंतें फकत मैं-मैं सुनाने के लिये । ले गया नद्दाफ उन्हें धुनकी बनाने के लिए ॥ तांत पर पर पड़ने लगीं चोटें तो घबराने मैं के बदले तू ही तू की फिर सदा आने पद्य की भाषा सरल और सीदी-सादी है अतः आप समझ ही गए होंगे कि बकरे के मैं-मैं शब्द ने उसकी कितनी दुर्दशा करवाई । ध्यान में रखने की बात है कि बकरे का उदाहरण कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता । किन्तु उसकी दुर्गति के पीछे छिपा हुआ मार्मिक रहस्य समझने की बात है । अहंकारी मनुष्य का अहंकार इसी प्रकार उसकी नाना प्रकार से दुर्गति का कारण बनता है । विनयनाशक क्रोध
लगी ॥
क्रोध भी मानव जीवन के लिये महा अनर्थकारी होता है । इसीलिये गाथा में कहा गया है कि क्रोधी को भी हित शिक्षा रुचिकर नहीं लगती ।
क्रोध एक ऐसा आवेश होता है, जिसके आ जाने पर मनुष्य को भान नहीं रहता कि वह करणीय कर रहा है या अकरणीय । इसके आधीन होकर मनुष्य मरने-मारने के लिये भी तैयार हो जाता है । वैसे हम देखते हैं कि संसार के प्रत्येक प्राणी को प्राण कितने प्रिय होते हैं, किसी भी कीमत पर वह उसे खोना नहीं चाहता । किन्तु क्रोधावेश में उसी अमूल्य प्राण को क्षण भर में ही नष्ट कर देता है ।
अभी-अभी हमने अहंकार की भयानकता के विषय में विचार किया था । किन्तु क्रोध उससे भी अधिक भयंकर साबित होता है । क्योंकि अहंकार तो मनुष्य की धीरे-धीरे दुर्दशा करता है किन्तु क्रोध तो जिस क्षण हृदय में उत्पन्न होता है उसी क्षण से प्राणी का अहित करने लगता है ।
एक श्लोक में कहा भी गया
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उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वयाश्रयम् ।
क्रोध कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ।।
अर्थात् - क्रोध जब उत्पन्न होता है तो उसी समय से अपने आश्रय स्थान यानी अन्तःकरण को अग्नि की तरह जलाने लगता है। उसके पश्चात् अन्य को तो वह जलाये या न भी जलाये ।
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इस कथन का आशय यही है कि क्रोध करने वाले व्यक्ति के द्वारा दूसरों की हानि तो हो पाए या नहीं किन्तु उसकी स्वयं की हानि तो तुरन्त ही होने लग जाती है ।
वस्तुतः क्रोध एक प्रचण्ड अग्नि है, जो मनुष्य इस अग्नि को वश में कर
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