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७.
आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
"हाँ, हाँ ! यह देखो उस टीका के हस्तलिखित पन्ने।" निमाई ने उत्तर दिया। ____टीका देखकर रघुनाथ ने अनुरोध किया कि उसे पढ़कर सुनाओ। इस पर निमाई पंडित प्रसन्नता से एक-एक पेज उठाकर अपनी टीका पढ़ने लगे।
रघुनाथ पडित ज्यों-ज्यों टीका सुनते थे उनका हृदय विषाद से भरता जा रहा था। अन्त में उनसे रहा नहीं गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। __ मित्र को रोते देखकर पंडित निमाई बड़े चकित हुये और उनसे रोने का कारण पूछा। रघुनाथ पंडित ने उत्तर दिया--"भाई, मैं तो यह समझता था कि मेरी टीका न्याय के ग्रन्थों में सबसे श्रेष्ठ है । किन्तु आज तुम्हारी लिखी हुई टीका के कुछ पेज सुनकर मेरी धारणा गलत साबित हो गई है। मुझे लगता है कि तुम्हारी टीका के सामने मेरी इस टीका को कौन पूछेगा ?"
"बस इतनी सी बात ? अगर ऐसा है तो मित्र, मैं अपने इस टीका-ग्रन्थ को अभी नष्ट किये देता हूँ क्योंकि तुम्हारी प्रसन्नता के लिये ग्रन्थ तो क्या मैं अपने प्राण भी विसर्जन कर सकता हूँ।" कहते हुये निमाई पंडित ने संसारप्रसिद्ध 'दीधीति' टीका से भी उत्तम और महा परिश्रम से लिखी गई अपनी . टीका का एक-एक पेज जल में प्रवाहित कर दिया।
यह देखते ही रघुनाथ पंडित पानी-पानी हो गए । अपने सज्जन मित्र का त्याग देखकर उन्हें अपनी तुच्छ मनोवृत्ति एवं ईर्ष्या की भावना पर घोर पश्चाताप हुआ और उनके मन से ये दुष्ट रोग सदा के लिये विलीन हो गए। यह सज्जन मित्र की संगति का ही प्रभाव था।
सज्जनों की संगति का चौथा लाभ यह है कि उससे गुण रहित व्यक्ति भी गुणवान् बन जाता है । इस विषय में हितोपदेश में एक श्लोक दिया गया
काच: काञ्चन संसर्गाद्धत्ते मारकती द्यतिम् ।
तथा सत्सनिधानेन मूो याति प्रवीणताम् । सुवर्ण के सम्बन्ध से काँच भी सुन्दर रत्न की शोभा को प्राप्त करता है, इसी प्रकार मूर्ख भी सज्जन के संसर्ग से चतुर हो जाता है । __ मनुष्य कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर ले और अपनी तर्कशक्ति बढ़ा ले, उससे उसकी आत्मिक शक्ति नहीं बढ़ पाती । आज के युग में शिक्षित व्यक्ति ही अधिकतर नास्तिक पाये जाते हैं । नास्तिकों में न तो ईश्वर के प्रति आस्था होती है और न ही उनका धर्म-कर्म, लोक-परलोक तथा पुण्य और पाप में विश्वास होता है । परिणाम यह होता है कि वे पापों से नहीं डरते तथा दिनोंदिन अपनी आत्मा को अवनति की ओर ले जाते हैं।
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