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सत्संगति दुर्लभ संसार। ७३ है। भले ही व्यक्ति संत-जनों का उपदेश न सुने किन्तु समीप रहकर उनकी दिनचर्या का अवलोकन करते हुये भी धीरे-धीरे उनके सदगुणों का अनुकरण करने लगता है और यही हाल दुर्जनों की संगति से होता है । न चाहने पर भी शनैः-शनैः वह दुर्गुणों की ओर सम्मुख हुए बिना नहीं रह पाता। तभी कबीर ने कहा है :
काजर की कोठरी में कसो हूं सयानो जाय ।
एक लीक काजर को लागि है 4 लागि है ॥ वस्तुत: काजल से भरी हुई कोठरी में प्रवेश करते समय मनुष्य नहीं चाहेगा कि उसके शरीर या कपड़ों पर तनिक भी कालिख लगे। किन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी कोई न कोई काली रेखा या धब्बा उस पर लगे बिना नहीं रहेगा।
ठीक यही हाल दुर्जनों की संगति करने पर होता है कि लाख मन को नियन्त्रण में रखने पर भी वह दुगुणों की ओर जाए बिना नहीं रहता। उनके सहवास से लाभ रंच-मात्र भी नहीं होता केवल हानि ही पल्ले पड़ती है। दुर्जन व्यक्ति संख्या में अनेक होकर भी किसी व्यक्ति का भला नहीं कर सकते क्योंकि वे स्वयं ही आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर करने का मार्ग नहीं खोज पाते । तभी कहा जाता है :
शतमप्यन्धानां न पश्यति । सौ अंधे मिलकर भी देख नहीं पाते।
किन्तु इसके विपरीत संत-पुरुष भने ही अकेला हो, वह स्वयं अपने लिये उत्तम मार्ग खोज लेता है तथा अन्य असंख्य व्यक्तियों को भी मार्ग सुझाता है। चंदन के समान वह अत्यल्प मात्रा में होकर भी मनुष्य के मन को आह्लाद से भर देता है. जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकती। किसी ने यही कहा है :--
चंदन की चुटकी भली, गाड़ी भरा न काठ। इसलिए बंधुओ ! भले ही थोड़े समय के लिये की जाय किन्तु संगति सत्पुरुषों की ही करनी चाहिए उससे हमें जो भी लाभ होगा वह हमारे जीवन को उन्नति के पथ पर कई कदम आगे बढ़ा सकेगा। मैंने एक दृष्टान्त पढ़ा था - त्रुटि सुधार
एक बार भगवान् महावीर के समवशरण में देवता, विद्याधर एवं साधारण
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