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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
कबीर ने कहा है :
वाद विवादे विष घना, बोले बहुत उपाध ।
मौन गहे सबकी सह, सुमिरै नाम अगाध । वस्तुतः अधिक बोलने से नाना प्रकार की परेशानियां सामने आती हैं और विवाद अधिक बढ़ जाने पर कटुता रूपी विष उत्पन्न हुये बिना नहीं रहता। इसलिये सबसे उत्तम यही है कि अधिक से अधिक मौन रहकर ज्ञानाभ्यास किया जाये ताकि उसे सच्चे अर्थों में प्राप्त किया जा सके। एक पश्चात्य विद्वान् ने मौन की महत्ता बताते हुये कहा है :Silence is more eloquent then words.
-कार्लाइल मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति रहती है।
इसलिये प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक व्यक्ति को अधिक से अधिक मौन रहकर ज्ञानादि गुणों का संचय करना चाहिये । अधिक बोलने से दिमाग कमजोर होता है, स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है और तीसरा नुकसान यह होता है जो निरर्थक बातचीत और वाद-विवाद में बहुत-सा समय व्यर्थ चला जाता है फलतः व्यक्ति अपनी आत्मोन्नति के मुख्य उद्देश्य की सिद्धि में पूरा समय नहीं लगा पाता तथा इसके विपरीत अल्पभाषी मनुष्य अधिक से अधिक समय तक मौन रहने के कारण अपने अमूल्य समय की बचत कर लेता है तथा अपने आध्यात्मिक कार्यों को करने की क्षमता बढ़ाता है। ___ अधिक से अधिक मौन रहने पर ही मन एकाग्रतापूर्वक समाधि में स्थिर रह सकता है और इसका पुनः पुनः अभ्यास हो जाने पर उसकी चपलता समाप्त होती है । इसे ही मन पर विजय प्राप्त करना कहा जाता है। मौन केवल वाणी का ही नहीं, अपितु मन का भी होता है और मन को विषयों की
ओर उन्मुख होने से रोकना ही इसका मौन कहलाता है । ध्यान में रखने की बात है कि वचन का मौन तो इच्छा करते ही संभव हो सकता है किन्तु मन की दौड़ अहर्निश जारी रहने के कारण उसे शांत रखना बड़ा कठिन होता है और मस्तिष्क के बार-बार प्रेरणा देने पर भी वह इधर-उधर चला जाता है। इसलिये वाणी के मौन के साथ-साथ मन के मौन का भी प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने पर ही आत्म-कल्याण का इच्छुक व्यक्ति अधिक से अधिक ज्ञान लाभ कर सकता है तथा अपनी साधना को उच्चतर बनाता हुआ अपने निर्दिष्ट लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।
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